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आगम के अनमोल रत्न
__उस समय इन्द्र वृद्ध ब्राह्मण के रूप में नमिराज के त्याग कीकसौटी करने, उनके पास आया और उनसे कहने लगा
___ "हे नमिराज ! आज मिथिला के महलों और घरों में कोलाहल से भरे हुए ये दारुण शब्द क्यों सुनाई देते हैं ?"
नमि ने कहा-"विप्र ! मिथिला नगरी के उद्यान में पत्र पुष्प और फलों से युक्त शीतल छाया वाला बहुत से प्राणियों का आश्रय दाता और मनको प्रसन्न करने वाला मनोरम वृक्ष सहसा उखड़ जाने से ये पक्षीगण दुःखी, अशरण और पीड़ित होकर आनंद कर रहे हैं।"
"हे नराधिप ! यह भाग और वायु आपके अन्त.पुर को जला रही है आप उस ओर क्यों नहीं देखते ?"
"हे विप्र । मैं सुख पूर्वक सोता हूँ और सुख पूर्वक रहता हूँ। मेरा अब इस नगरी के साथ- किंचित् भी सम्बंध नहीं है । मिथिला के जलने से मेरा कुछ भी नहीं जलता।"
जिस भिक्षु ने पुत्र कलत्रादि का सम्बन्ध तोड़ दिया है और जो सब व्यापार से रहित है उसको संसार का कोई भी पदार्थ प्रिय या अप्रिय नहीं है।
__समस्त बन्धनों से मुक्त होकर एकत्वभाव में रहने वाले अनगार मुनि को निश्चय में ही बहुन सुख है।
"नमिराज ! किले, दरवाजे, मोर्चे, खाई, शतनी आदि नगररक्षा के साधन बनवाकर फिर आप दीक्षा लें।"
"हे विप्र ! श्रद्धा रूप नगर की सुरक्षा के लिये मैने क्षमा रूपी कोट, तप और संवर रूपी भर्गला और त्रिगुप्ति रूप खाई वनाली है। जिससे दुर्जय कर्मरूपी शत्रु का कुछ भी बस चल नहीं सकता।"
"मैने पराक्रम रूपी धनुष की ईर्यासमिति रूप डोरो बनाकर धैर्य रूपी केतन से सत्य के द्वारा उसे बांध दिया है।"