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आगम के अनमोल रत्न
४९३ "हे विष ! जो मनुष्य प्रतिमास दसलाख गायों का दान करता है उसकी अपेक्षा कुछ भी दान नहीं करने वाले मुनि का संयम श्रेष्ठ है।"
"हे नराधिा ! आप घोर गृहस्थाश्रम का त्याग करके संन्यास आश्रम की इच्छा करते हैं, किन्तु आपको ससार में ही रहकर उपोषध में रत रहना चाहिये।"
"हे विप्र । जो अज्ञानी मास मास खमण तप करते हैं और कुशाग्र जितना आहार ग्रहण करते हैं वे तीर्थकर प्ररूपित धर्म को सोलहवीं कला* के बरावर भी नहीं हैं।"
"हे क्षत्रिय ! सोना, चांदी, मणिमुक्का, कांसा, वस्त्र, वाहन तथा कोष की अभिवृद्धि कर फिर आप संसार छोड़ें।"
"हे विप्र! यदि कैलास पर्वत के समान सोने चादी के असंख्य पर्वत हो आयें तो भी मनुष्य को सन्तोष नहीं होता क्योंकि इच्छा आकाश के समान अनन्त है।"
हे विप्र ! चावल, जौ, स्वर्ण तथा पशुओं से परिपूर्ण पृथ्वी किसी एक मनुष्य को दी जाय तो भी उसकी इच्छा पूर्ण नहीं हो सकती। यह जानकर बुद्धिमान् तप का आचरण करते हैं ।।
सोलह कलाएँ निम्न हैं--(१) चेतन की चेतना-का अनन्तवें भाग को प्रगट करना । (२) यथाप्रवृत्तिकरण की स्थिति को प्राप्त करना । (३) अपूर्वकरण-प्रन्थि भेद करना । (४) अनिवृत्ति करणमिथ्यात्व से निवृत्त होना । (५) शुद्ध श्रद्धा-सम्यक्त्व की प्राप्ति करना। (६) देशविरतित्व-श्रावकपन प्राप्त करना । (५) सर्व विरति-रूप चारित्र ग्रहण करना । (८) धर्म ध्यान अप्रमत्त अवस्था को प्राप्त करना। (९) गुणश्रेणि क्षपक-श्रेणी पर चढ़ना । (१०) अवेदो हो कर शुक्ल ध्यान की अवस्था में आना। (११) सर्वथा लोभ का क्षय कर आत्म ज्योति 'प्रगट करना। (१२) धनघाती कर्म का क्षय करना । (१३) केवलज्ञान प्राप्त करना । (१४) शैलेसी अवस्था को प्राप्त करना । (१५) भाव भयोगी वन सकल कर्म का क्षय करना । (१६) सिद्ध पद को प्राप्ति करना ।