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आगम के अनमोल रत्न "हे राजन् । आश्चर्य है कि आप प्राप्त भोगों को छोड़कर अप्राप्त भोगों की इच्छा कर रहे हैं, किन्तु अन्त में संकल्प विकल्प में पड़कर आपको पश्चाताप करना पड़ेगा ।"
"हे विप्र! काम भोग शल्य रूप है, विषरूप हैं, आशीविष सर्प के समान हैं । काम भोगों की अभिलाषा करने वाले प्राणी अंत में दुर्गति में जाते हैं।"
"हे विष ! क्रोध करने से जीव नरक में जाता है । मान से नीच गति होती है। माया से शुभ गति का नाश होता है, और लोभ से दोनों लोकों में भय होता है ।"
यह सुन कर देवेन्द्र ने विप्र का रूप त्याग दिया और असली रूप प्रकट हो कर बोला--"हे ऋषे 1 आप.धन्य हैं । आपने सब कुछ जीत लिया है । हे ऋषे । आपकी सरलता, कोमलता, क्षमा, और निर्लोभता श्रेष्ठ है । यह बड़े आश्चर्य और हर्ष की बात है।"
इस प्रकार उत्तम श्रद्धा से नमिराजर्षि की स्तुति करता हुआ बार बार बन्दना कर वह अपने स्थान चला गया । .... नमिराज राजा से राजर्षि हो गये। अन्त में मोक्ष प्राप्त किया ।
२. प्रत्येक बुद्ध, करकण्डू चंगा नगरी में दधिवाहन नाम का राजा राज्य करता था । उसकी रानी का नाम पद्मावती था। एक बार रानी गर्भवती हुई और उसे पुरुष के वेश में राजा के साथ हाथी पर बैठकर उद्यान में विहार करने का दोहद उत्पन्न हुआ । रास्ते में राजा का हाथी बिगड़ गया
और उन दोनों को लेकर जंगल की ओर भागा । रास्ते में एक वट वृक्ष दिखाई दिया राजा ने उसकी शाखा पकड़ कर अपनी जान बचाई, 'परन्तु रानी गर्भवती होने से वट की शाखा नहीं पकड़ सकी वह हाथी पर ही रह गई । हाथी रानी को टेवर जंगल की ओर भाग गया ।