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आगम के अनमोल रत्न
भिन्न है । मै आज भगवान के पास दीक्षित हो जाऊँगा ।" नन्दिषेण के मुख से यह बात सुन वेश्या अवाक् होगई। उसने क्षमा याचना की और घर रहने के लिये आग्रह करने लगी। पिता के घर छोड़ चले जाने की बात सुनते ही कुमार नन्दिषेण के पास आया और उन्हें कच्चे धागों में बांध दिया । कुमार ने सात आंटे लगाये । अपने पुत्र की ममता के सामने नन्दिषेण को झुकना पड़ा। पुत्र के स्नेह -वश उसने पुनः सात वर्ष गृहस्थ अवस्था में रहना स्वीकार किया ।
नन्दिषेण के बारह वर्ष समाप्त हो गये । साथ ही उसके भोगावली कर्म भी । नन्दिषेण पुनः साधु हो गया और कठोर तप करने लगा । कठोर तप करते हुए उसने घनघाती कर्मों को नष्ट कर दिया और केवलज्ञानी होकर मोक्ष में गया ।।
___ अरणक मुनि तगरा नाम की नगरी में दत्त नाम का वणिक रहता था। उसकी भद्रा नाम की पत्नी थी और अरणक नाम का पुत्र था ।
एक समय अर्ह मित्राचार्य अपनी शिष्य मण्डली के साथ तगरा नगरी पधारे। आचार्य का आगमन सुनकर दत्त परिवार सहित आचार्य की सेवामें पहुँचा । आचार्य ने उसे उपदेश दिया। आचार्य का उपदेश सुनकर पिता पुत्र एवं माता तीनों ने दीक्षा ग्रहण कर ली। पिता पुत्र ने स्थविरों की सेवामें रहकर सूत्रों का अध्ययन किया। कुछ समय के बाद भाचार्य की आज्ञा से पिता पुत्र स्वतंत्र रूप से विहार करने लगे । पिता का अपने पुत्र भरणक पर बड़ा स्नेह था। पुत्र को किसी भी बात का कष्ट न हो इस बात का पूरा ध्यान रखता था । पुत्र को कष्ट से बचाने के लिये पिता कभी भी भरणक को गोचरी के लिये बाहर नहीं मेजता था । वह स्वतः गोचरी लाकर अरणंक को खिला दिया करता था । पिता को छत्र छाया में रहकर भरणकमुनि, ने कभी भी कष्ट का अनुभव नहीं किया।