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आगम के अनमोल रत्न
षेण ने भूमि पर पड़ा एक तिनका उठाया और उसे तोड़ा । तत्काल सुवर्णमुहरों का ढेर लग गया । नन्दिषेण के इस चमत्कार को देखकर वेश्या आश्चर्य चकित हो गयी। वह तत्काल दौड़ी हुई आई और मुनि के चरणों में पड़कर क्षमा याचना करने लगी और उन्हें अपने वश में करने के लिये विविध हाव-भाव करने लगी । वेश्या के हावभाव से नन्दिषेण अपनी साधना को भूल गया । उसने वेश्या की वात मानली और वह वहीं रहने लगा। उस समय उसने एक प्रतिज्ञा की कि "जबतक प्रतिदिन दस व्यक्तियों को प्रतिवोध देकर भगवान महावीर के समवशरण में नहीं मेनूँगा तबतक मै भोजन नहीं करूँगा।"
नन्दिषेण भव अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार प्रतिदिन दस-दस व्यक्तियों को प्रतिवोधित कर भगवान के समवशरण में पहुँचाता । प्रतिज्ञा के पूर्ण होने पर ही वह भोजन करता । ऐसा करते हुए उसके पांच वर्ष बीत गये । इसके बीच उसके एक पुत्र भी हुभा ।
एक दिन नन्दिषेण नौ व्यक्तियों को समझा चुका था किन्तु, दसवाँ व्यक्ति अनेक प्रयत्न करने पर भी प्रतिबुद्ध नहीं हो रहा था। वह था एक सुवर्णकार । जब नन्दिषेण ने सुवर्णकार को धर्म की बातें कहीं तो उसने नन्दिषेण से कहा-भाई ! तुम धर्म सम्वन्धी इतनी लम्बी-लम्बी बातें करते हो और धर्म को जीव के लिये आवश्यक मानते हो तो उसका स्वयं क्यों नहीं भाचरण करते। दूसरों को उपदेश देने में ही वीरता बता रहे हो । स्वयं वेश्या के घर रहते हो और हमें मोक्ष का मार्ग बताते हो । पहले तुम स्वयं अपना आचरण सुधारो फिर हमें आचरण सुधारने का उपदेश दो । इधर वेश्या मजाक में बोल उठी-“यदि सुवर्णकार स्वयं नहीं समझता है तो आप स्वयं क्यों नहीं समझ जाते ।" वेश्या के इन शब्दों ने नन्दिपेण को झकझोर कर डाला । उसका मन वैराग्य की ओर पुनः झुका । वह तत्काल बोल उठा-लो, मै भी समझ गया । आज से तुम्हारा और मेरा मार्ग