________________
४६६
आगम के अनमोल रत्न
धीरे-धीरे सभी दुर्व्यसनों में ,आसक्त हो गया। अव चोरी करना तो उसके बायें हाथ का काम था।
राजगृह से कुछ दूरी पर आग्नेय कोण में एक बड़ी चोरपल्ली थी। वह चोरपल्ली पर्वत - की एक विषम कन्दरा के किनारे पर अवस्थित थी। वह बाँसों की झाड़ियों से घिरी हुई और पहाड़ों की खाइयों से सुरक्षित थी। उसके भीतर जल का उत्तम प्रबन्ध था परन्तु उसके बाहर जल का अभाव था। भागने या भागकर छिपने वालों के लिये उसमें अनेक गुप्त मार्ग थे। उस चोरपल्ली में परिचितों को ही आने और जाने दिया जाता था। वह चोर पल्ली चोरों को पकड़ने वाली सेना के लिये भी दुष्प्रवेश थी।
इस चोरपल्ली में विजय नाम का चोर सेनापति रहता था । वह बड़ा क्रूर था। उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे। उसके अत्याचारों से पीड़ित सारा प्रांत उसके नाम से काँप रहा था। वह बड़ा निर्भय, निर्दय, वहादुर और सब प्रकार की परिस्थितिभों का डटकर सामना करने वाला था । उसका प्रहार अमोघ था । शब्दवेधी बाण के प्रयोग में वह बड़ा कुशल था। पांच सौ चोर उसके शासन में रहते थे। उसकी टोली में सभी प्रकार के अपराधी शामिल थे। वह अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये चोरों, गाठकतरों, परस्त्रीलंपटों, जुआरियों और धूर्ती को आश्रय देता था। नागरिकों को लूटना, ग्रामों को जलाना, मार्ग में चलते हुए मनुष्यों का सब कुछ खोंस लेना एवं नगर के प्रतिष्ठित लोगों को अपहरण कर उनसे धन वसूल करना उसका प्रतिदिन का कार्य था।
इधर चिलात के भी अपराध बढ़ने लगे। लोग भी उसका तिरस्कार करने लगे। कई अपराधों के कारण कोतवाल चिलात की तलाशी में लगा हुआ था। वह पुलिस से अपने आपको बचाता हुआ विजय चोर को सिंहपल्ली में पहुँच गया। विजय ने उसे अपने पास रख लिया और उसे सारी चोर विद्याएँ सिखा दीं। वह भी थोरे ही समय