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आगम के अनमोल रत्न
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हीन हो गई । उसने फाँसी लगाई तो रस्सी टूट गई । मृत्यु भी उसका अनादर करने लगी। उसने मरने के कई उपाय किये. किन्तु वे सबके सव निष्फल गये ।
वह इन परिस्थितियों पर विचार कर ही रहा था कि उस समय पोट्टिलदेव उसके सन्मुख उपस्थित होकर बोला-हे तेतलीपुत्र | आगे 'प्रपात है और पीछे हाथी का भय है। दोनों वगलों में ऐसा घोर अंधहै कि आँखों से दिखाई नहीं देता । मध्यभाग में वाणों की वर्षा हो रही ही। गांव में आग लगो है और वन धधक रहा है तो है आयुष्मान् तेतलीपुत्र । हम कहाँ जाएँ ? कहाँ शरण लें । ऐसे सर्वत्र भय के वातावरण में हमें किसकी शरण में जाना चाहिये ?
तव तेतलीपुत्र ने कहा-देव ! भयग्रस्त पुरुष के लिये प्रत्रज्या ही शरणभूत है । कारण वीतराग अवस्था ही निर्भयता का कारण है।
सर्वत्र भयग्रस्त प्राणियों को दीक्षा क्यों शरणभूत है । उसका स्पष्टीकरण यह है कि क्रोध का निग्रह करने वाले क्षमाशील इन्द्रिय
और मन का दमन करने वाले जितेंद्रिय पुरुष को इनमें से एक का भी भय नहीं है । भय काया और माया का ही होता है । जिसने दोनों की ममता त्याग दी वह सदैव और सर्वत्र निर्भय है ।
तब पोट्टिल देव ने कहा-जब तुम इस परमार्थ को समझते हो तो फिर दीक्षा क्यों नहीं ग्रहण कर लेते । अपने जीवन को निर्भय क्यों नहीं बना लेते । पोट्टिलदेव की वात का असर तेतलीपुत्र पर पड़ गया । वह विचार में डूब गया । शुभ परिणामों के कारण उसे आतिस्मरण हो गया । उसने अपना पूर्व जन्म देखा
जम्बूद्वीप में महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नामके विजय में पुंडरिकिणी नामकी राजधानी में मै महापद्म नाम का राजा था । उस भव में स्थविरों के पास मुण्डित होकर चौदह पूर्व पढ़कर वर्षों तक चारित्र पालकर एक मास का अनशन कर महाशुक्र नामक देवलोक में उत्पन्न हुभा था।