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आगम के अनमोल रत्न
एक दिन पोटिला रात को जग रही थी तो उसे विचार हुमा"सुव्रता अर्या के पास दीक्षा टेना ही कल्याणकारक है।"
दूसरे दिन पोट्टिला तेतलीपुत्र के पास पहुँची और हाथ जोड़कर बोली-स्वामी ! मै सुत्रता भार्या के पास दीक्षा लेना चाहती हूँ। इसके लिये मुझे आप आज्ञा दें।'
तेतलीपुत्र ने कहा-देवी चारित्र पालन करके अब तुम स्वर्ग में जाभो तव वहाँ से आकर मुझे केवली प्ररूपित धर्म का उपदेश देकर धर्म मार्ग में प्रवृत करो तो मैं तुम्हे आज्ञा दे सकता हूँ। पोटिला ने इस बात को स्वीकार कर लिया । तब तेतलीपुत्र ने पोटिला का दीक्षा महोत्सव किया । उसे हजार पुरुषों द्वारा वहन करने योग्य शिविका पर आरुढ़ करके सुत्रता के पास उपाश्रय में ले आया। साध्वी को वन्दन कर बोला-आर्ये ! मैं अपनी पत्नी पोहिला को आपकी शिष्या के रूप में भिक्षा देता है। उसे स्वीकार करें। सुव्रता साध्वी ने पोट्टिला को दोक्षा दे दी। इसके बाद साध्वी पोटिला ने ग्यारह अंग सूत्रों का अध्ययन किया । वहुत वर्षों तक चारित्र का पालन किया । अन्त में एक मास की संलेखना करके अपने कर्मों को क्षीणकर साठ भक्तों का अनशन कर पापमं की आलोचना तथा प्रतिक्रमण करके समाधि पूर्वक काल करके देवलोक में उत्पन्न हुई । ____ इधर कनकरथ राजा की मृत्यु हो गई । राजा का लौकिक कृत्य करने के बाद प्रश्न उठा कि अव गद्दी पर कौन वैठेगा । तव सव लोग मिलकर तेतलीपुत्र अमात्य के पास पहुंचे और राज्य के उत्तराधिकारी की व्यवस्था करने के लिए कहने लगे।
तेतलीपुत्र ने रहस्य खोल दिया और कहा-कनकध्वज ही वास्तव में इस गद्दी का मालिक है । यह पुत्र मेरा नहीं है किन्तु महाराज कनकरथ का ही पुत्र है । अमात्य के मुख से यह सुनकर लोग बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कनकध्वज का राज्याभिषेक किया और उसे राजा बना दिया।
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