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आंगर्म के अनमोल रत्न उस समय सुत्रता नाम की आर्या अनेक शिष्याओं के साथ विहार करती हुई तेतलीपुर पधारी ।
सुत्रता आर्या का एक संघाटक (दो साध्वियाँ) पहली पोरसी में स्वाध्याय कर, द्वितीय पोरसी में ध्यान कर, तृतीय पोरसी में अपनी गुरुआनी की भाज्ञा प्राप्त कर आहार के लिए निकली । ऊँच नीच और मध्यम कुलों में भिक्षाटन करती हुई तेतलीपुत्र के घर गई। उन्हें आते देख पोट्टिला खड़ी हो गई और वन्दना करने के बाद, नाना प्रकार के भोजन देकर बोली-हे आर्याभो । पहले मै तेतलीपुत्र की इष्ट थी; अव अनिष्ट हो गई हूँ। आप लोग बहु शिक्षिता हैं और बहुत से ग्राम नगर, आकर आदि में विचरण करती रहती हैं, बहुत से राजा सेठ साहुकारों के घर में जाती रहती हैं । तो हे आर्याओ! क्या कोई चूर्णयोग, कार्माणयोग, कर्मयोग, वशीकरण औषधि आदि प्रयोग आपने प्राप्त किया है ? आप मुझे भी ऐसा कोई प्रयोग बता जिससे मैं पुनः तेतलीपुत्र की इष्ट हो जाऊँ । - यह सुनते ही उन आर्याभों ने अपने कान ढंक लिये और बोलीहम साध्वियाँ हैं । निर्गन्थ प्रवचनानुसार चलने वाली ब्रह्मचारिणियाँ हैं अतएव ऐसे वचन हमें कानों से सुनना भी नहीं कल्पता तो इस विषय का आदेश उपदेश देना या आचरण करना तो कल्प ही कैसे सकती है ? हाँ, देवानुप्रिये । हम तुम्हें अद्भुत या अनेक प्रकार के केवली प्ररूपित धर्म का भलीभांति उपदेश दे सकती हैं।
इस. पर पोहिला ने कहा-आर्य ! मेरी केवलिप्ररूपित धम को सुनने की इच्छा है । आप मुझे अपना धर्म सुनाएँ। तब आर्याओं ने उसे श्रावक धर्म और साधु धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सुनने के बाद पोट्टिलाने पांच अनुनत और तीन गुणवत एवं चार शिक्षाबत रूप धर्म को ग्रहण किया । थोड़े ही समय में वह जीवादि तत्त्वों की जानकार श्राविका बन गई ! साधु साध्वियों को आहारादि से प्रतिलाभित कर अपनी आत्मा को भावित करने लगी।