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________________ आगम के अनमोल रत्न ४५७ हीन हो गई । उसने फाँसी लगाई तो रस्सी टूट गई । मृत्यु भी उसका अनादर करने लगी। उसने मरने के कई उपाय किये. किन्तु वे सबके सव निष्फल गये । वह इन परिस्थितियों पर विचार कर ही रहा था कि उस समय पोट्टिलदेव उसके सन्मुख उपस्थित होकर बोला-हे तेतलीपुत्र | आगे 'प्रपात है और पीछे हाथी का भय है। दोनों वगलों में ऐसा घोर अंधहै कि आँखों से दिखाई नहीं देता । मध्यभाग में वाणों की वर्षा हो रही ही। गांव में आग लगो है और वन धधक रहा है तो है आयुष्मान् तेतलीपुत्र । हम कहाँ जाएँ ? कहाँ शरण लें । ऐसे सर्वत्र भय के वातावरण में हमें किसकी शरण में जाना चाहिये ? तव तेतलीपुत्र ने कहा-देव ! भयग्रस्त पुरुष के लिये प्रत्रज्या ही शरणभूत है । कारण वीतराग अवस्था ही निर्भयता का कारण है। सर्वत्र भयग्रस्त प्राणियों को दीक्षा क्यों शरणभूत है । उसका स्पष्टीकरण यह है कि क्रोध का निग्रह करने वाले क्षमाशील इन्द्रिय और मन का दमन करने वाले जितेंद्रिय पुरुष को इनमें से एक का भी भय नहीं है । भय काया और माया का ही होता है । जिसने दोनों की ममता त्याग दी वह सदैव और सर्वत्र निर्भय है । तब पोट्टिल देव ने कहा-जब तुम इस परमार्थ को समझते हो तो फिर दीक्षा क्यों नहीं ग्रहण कर लेते । अपने जीवन को निर्भय क्यों नहीं बना लेते । पोट्टिलदेव की वात का असर तेतलीपुत्र पर पड़ गया । वह विचार में डूब गया । शुभ परिणामों के कारण उसे आतिस्मरण हो गया । उसने अपना पूर्व जन्म देखा जम्बूद्वीप में महाविदेह क्षेत्र में पुष्कलावती नामके विजय में पुंडरिकिणी नामकी राजधानी में मै महापद्म नाम का राजा था । उस भव में स्थविरों के पास मुण्डित होकर चौदह पूर्व पढ़कर वर्षों तक चारित्र पालकर एक मास का अनशन कर महाशुक्र नामक देवलोक में उत्पन्न हुभा था।
SR No.010773
Book TitleAgam ke Anmol Ratna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHastimal Maharaj
PublisherLakshmi Pustak Bhandar Ahmedabad
Publication Year1968
Total Pages805
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Story
File Size24 MB
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