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आगम के अनमोल रत्न
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वहाँ से विहार क्यिा । प्रामानुग्राम विचरण करते हुए वे स्थविर भग-- वान की सेवा में पहुँचे । उनके पास पहुँच उन्होंने चातुर्याम धर्म ग्रहण किया । स्वाध्याय, ध्यान से निवृत्त हो कर पुण्डरीकमुनि आहार के लिए निकले । ऊँच नीच-मध्यम कुलों में पर्यटन करते हुए निर्दोष आहार प्राप्त किया। लौट कर वे स्थविर के पास आये और उन्हें: लाया हुआ भोजन-पानी दिखलाया । फिर स्थविर भगवान की आज्ञा होने पर मूर्खा रहित हो कर जैसे सर्प बिल में प्रवेश करता है उसी प्रकार स्वाद न लेते हुए नीरस माहार के कवल को पेट में उतार दिया ।
पुण्डरीक भनगार उस कालातिक्रान्त, रसहीन रूक्ष आहार करके मध्यरानी के समय धर्म-जागरण कर रहे थे अतः वह आहार उन्हें नहीं पचा । उसका शरीर में विपरीत असर होने लगा । पेट में असह्य वेदना उत्पन्न हो गई । शरीर पित्त ज्वर से व्याप्त हो गया
और शरीर में दाह होने लगा । शरीर प्रतिक्षण निस्तेज और निर्वल होने लगा । अपना अन्तिम समय जान उन्होंने भात्मआलोचना तथा प्रतिक्रमण किया और यावज्जीवन का अनशन ग्रहण कर लिया । इस तरह उत्कृष्ट और शान्त भाव से देह छोड़ा और मरकर वे सर्वार्थसिद्ध विमान में उत्पन्न हुए । कालान्तर में वे महाविदेह क्षेत्र. मै सिद्धि प्राप्त करेंगे।
उधर राजगद्दी पर बैठ कर कण्डरीक काम भोगों में आसक्त हो कर अतिपुष्ट और कामोत्तेजक पदार्थों का अतिमात्रा में सेवन करने लगा। वह माहार उसे पचा नहीं । अर्धरात्रि के समय उसके शरीर में तीव्र वेदना उत्पन्न हुई । उसका शरीर पित्त ज्वर से व्याप्त हो गया । उसने अनेक प्रकार की चिकित्सा करवाई लेकिन वह बच नहीं सका । अन्त में भार्त और रौद्र ध्यान के वशीभूत वना कण्डरीक भोगासक्ति में ही मरा और मर कर सातवीं नरक में उत्कृष्ट स्थितिवाला नैरयिक बना । वहाँ से च्युत हो कर यह अनन्त संसार में परिभ्रमण. करेगा।