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तीर्थकर चरित्र मानकुमार' जरा भी भयभीत नहीं हुए। वे धैर्यपूर्वक सर्प की ओर •बड़े और उसे हाथ से खींचकर दूर फेक दिया । . . .
पुनः खेल प्रारंभ हो गया। वे 'तिंदूसक' नाम का खेल खेलने लगे। इसमें यह नियम था कि अमुक वृक्ष को लक्ष्य करके लड़के दौड़ें । जोलड़का सब से पहले उस वृक्ष को छू ले वह .विजयी और शेष पराजित । इसबार वह देव बालक के रूप में उनके साथ खेल खेलनेलगा । क्षणभर में वाककरूपधारी देव अपने हरीफ वर्धमानकुमार से हार गया और शर्त के अनुसार वर्धमानकुमार को अपनी पीठ पर लेकर दौड़ने लगा । वह दौड़ता जाता था और अपना शरीर बढ़ाता जाता था । क्षण भर में उसने अपना शरीर सात ताद जितना ऊँचा वना लिया और वहा भयंकर बन गया। वर्धमान को दैवी माया समझते देर न लगी उन्होंने जोर से उसकी पीठ पर एक चूसा जमा दिया। वर्धमान का वज्रमय प्रहार देव सह नहीं सका । वह तुंरत नीचे बैठ
गया।
अब देव को विश्वास हो गया कि वर्धमान को पराजित करना उसकी शक्ति के बाहर है । वह असली रूप में प्रकट होकर बोलावर्धमान ! सचमुच ही आप 'महावीर' हो । सौधर्मेन्द्र ने आपकी जैसी प्रशंसा की वैसे ही आप हैं । कुमार ! मै तुम्हारा परीक्षक बन कर भाया था और प्रशंसक बनकर जाता हूँ। देव चला गया किन्तु वर्धमान कुमार का 'महावीर' विशेषण सदा के लिये अमर बनगया । •महावीर का लेखशाला में प्रवेश
___ भगवान महावीर के आठ वर्ष से कुछ अधिक होने पर उनके मातापिता ने शुभमुहूर्त देखकर सुन्दर वस्त्र अलंकार धारण कराके हाथी 'पर बैठाकर भगवान महावीर को पाठशाला में भेजा । अध्यापक को भेंट देने के लिये अनेक उपहार और छात्रों को बांटने के लिये नानाप्रकार की वस्तुएँ मेगी गई । जब भगवान पाठशाला में पहुँचे तो अध्यापक ने उन्हें सम्मान पूर्वक आसन पर बिठलाया ।