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चारह चक्रवर्ती
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कर भरत चक्रवर्ती ने सेनापतिरत्न, गृहपतिरत्म, वर्द्धकिरत्न, और पुरोहिरत्न का सत्कार किया, सूपकारों, अठारह श्रेणी-प्रश्रेणी तथा राजा आदि को सम्मानित किया । उसके बाद वे अनेक ऋतुकल्याणिकाओं, जनपदकल्याणिकाओं और विविध नाटकों से वेष्टित स्त्रीरत्न के साथ आनन्द पूर्वक जीवन यापन करने लगे। ___एक दिन भरत ने अपने सेनापति आदि को बुलाकर महाराज्याभिषेक रचाने का आदेश दिया । अभिषेकमण्डप में अभिषेक आसन समाया गया। इसके ऊपर भरत चक्रवर्ती पूर्व की ओर मुख करके आसीन हुए। मांडलिक राजाओं ने भरत की प्रदिक्षिणा कर जय विजय से उन्हे वधाई दी। सेनापति, पुरोहित, सूपकार श्रेणी-प्रश्रेणी आदि ने उनका अभिषेक किया तथा उन्हें हार, और मुकुट आदि वहुमूल्य आभूषण पहनाये । नगरी में आनन्द मंगल मनाया जाने लगा।
भरत के चक्रवर्ती बनने के बाद उनकी दृष्टि अपने ९९ भाइयों पर पड़ी । उन्होंने अपनी आज्ञा मनवाने के लिये एक एक दूत ९९ भाइयों के पास भेजे । दूतों ने जाकर उनसे कहा कि यदि आप अपने राज्य की रक्षा चाहते हैं तो भरत चक्रवर्ती की आज्ञा शिरोधार्य कर उनकी आधीनता स्वीकार करें। दूतों की बात सुनकर वाहुबलि के सिवाय अन्य महानवे भाई एक स्थान पर एकत्र हुए और आपस में सोचने लगे कि अपने पिता भगवान ऋषभदेव ने जिसप्रकार भरत को उसके हिस्से का राज्य दिया है उसी प्रकार हमें भी अपने अपने हिस्से का राज्य दिया है। ऐसी स्थिति में भरत को हमारा राज्य छीनने का या हमसे आज्ञा सनवाने का क्या हक है । जैसा वह अपने देश का राजा है वैसे हम भी अपने अपने देश के राजा हैं । भरत को छ खण्ड का राज्य मिलने पर भी उसकी राज्यलालसा कम नहीं हुई प्रत्युत वह हमारे राज्य को भी अपने राज्य में मिलाना चाहता है और हमसे जबरदस्ती आज्ञा मनवाना चाहता है। क्या हमें भरत की आधीनता स्वीकार करनी चाहिये या अपनी राज्य की रक्षा के लिये उससे