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आगम के अनमोल रत्न
नन्द ने स्थूलिभद्र को मंत्री पद ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया। राजा के मामन्त्रण से स्थूलिभद्र राजसभा में पहुँचे तो उन्हें जब पता लगा कि पिताजी वररुचि के षड्यन्त्र से मारे गये हैं तो वे बड़े खिन्न हुये और सोचने लगे-मै कितना अभागा हूँ कि वैश्या के मोह के कारण मुझे पिता की मृत्यु की घटना तक का पता नहीं चला ! उनकी सेवा सुश्रषा करना तो दूर रहा, अन्तिम समय में मैं उनके दर्शन तक नहीं कर सका । धिक्कार है मेरे जीवन को !" इस प्रकार शोक करते-करते स्थूलिभद्र का हृदय संसार से उदासीन हो गया । मन्त्रीपद के स्थान पर साधुपद उन्हें अधिक निराकुल लगा। अन्त में सब कुछ छोड़ कर वे आचार्य संभूतविजय के समीप पहुंचे और मुनित्व धारण कर लिया। तत्पश्चात् श्रीयक मन्त्री बने ।
कोशा गणिका के पास जब यह खबर पहुँची तो उसका हृदय दुःख से भग्न हो गया। अब उसके लिए धीरज के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं था ।
वररुचि से बदला लेने के लिए अब श्रीयक भी कोशा के घर जाने लगा। कोशा की छोटी बहन उपकोशा थी जो वररुचि से प्रेम करती थी। एक दिन श्रीयक ने कोशा के घर जाकर कहा-"भाभी, देखो वररुचि कितना अधम है ? इसके कारण पिताजी को प्राण त्याग करना पड़ा और हम लोगों को स्थूलिभद्र का वियोग सहना पड़ा । तुम अपनी बहन से कह कर किसी तरह इसे मदिरा-पान कराओ।" कोशा ने अपनी बहन से जा कर कहा-"बहन, तुम सुरापान करती हो और वररुचि नहीं करता ?" एक दिन उपकोशा के बहुत कहने पर वररुचि ने चन्द्रप्रभा नामक सुरा का पान किया और तत्पश्चात् धीरे धीरे उसे उसका चसका लग गया ।
एक दिन नन्द श्रीयक के साथ बैठा हुआ था । राजा ने श्रीयक से कहा-"देखो, तुम्हारा पिता मेरा कितना हितैषी था।" श्रीयक ने