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आगम के अनमोल रत्न
और खेत का चक्कर लगाने लगे । पाँच सौ हलवाहक और पांच हजार वैल तेरे इस आदेश से भूखे रह गये । उन जीवों को तूने आहार पानी की अन्तराय दी जिसके परिणाम स्वरूप तूने प्रबल अन्तराय कर्म का बन्धन किया। अनेक जन्मों के बाद एक बार मुनि के उपदेश से तुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति हुई और तूने उसके पास प्रव्रज्या ग्रहण कर ली । विशुद्ध चारित्र का पालन कर अनशन पूर्वक तूने देह न्छोड़ा और भरकर सौधर्म देवलोक में देव बना । वहां से च्युत होकर तू महारानी ढंढणा के गर्भ में पुत्र रूप से उत्पन्न हुभा । हे ढंडण ! तेरे वे अन्तराय कर्म अब उदय में आये हैं इसीलिए तुझे आहार पानी का इस समय योग नहीं मिल रहा है।
अपने पूर्व जन्म का वृत्तान्त सुनकर ढंढण राजर्षि विचार में पड़ गये । उन्हें अपने पापों का पश्चाताप होने लगा। उन्होंने अपने पूर्वोपार्जित कर्मों को नष्ट करने का दृढ़ निश्चय किया। भगवान को वन्दन कर उन्होंने निवेदन किया-भगवन् ! पूर्वोपार्जित कर्मों की निर्जरा करने के लिये अभिग्रह करता हूँ कि पर निमित्त से होनेवाले लाभ को मै ग्रहण नहीं करूंगा । इस कठोर अभिग्रह को ग्रहणकर ढंडण राजर्षि आहार के लिये नगरी में आते और बिना कुछ पाये लौट आ जाते। इस प्रकार छ महीने बीत गये । राजर्षि टंडण का शरीर अत्यन्त कृश होगया । केवल अस्थिपजर ही शेष रह गया फिर भी वे उद्विग्न नहीं हुए । शान्तिपूर्वक वे साधुचर्या का पालन करने लगे। शरीर के प्रति अव उनके मन में कोई ममता नहीं थी।
एक बार श्रीकृष्ण, भगवान के समीप वन्दन करने के लिये आये। उन्होंने भगवान से प्रश्न किया। भगवन् ! आपके अठारह हजार शिष्यों में सब से उग्रतपस्वी और साधक कौन हैं और वे अभी कहा है ?
भगवान ने कहा-कृष्ण ! मेरे इन साधुओं में दुष्कर क्रिया करने वाला और सबसे पहले मोक्षगामो तेरापुत्र ढंढण है । वह अभी गोचरी गया हुआ है और तुझे रास्ते में मिलेगा ।