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आगम के अनमोल रत्न
रसदार बड़ा तुम्बा पसन्द किया । तुम्बे को खुरनी पर घिसकर उसका चुरा बनाया और फिर उसमें विविध मसाले डाल कर तेल में छौका। शाक बन जाने के बाद उसने एक कौर मुँह में डाला तो पता चला कि तुम्बा अत्यन्त कडुभा और विषैला है । एक ही कौर खाकर नागश्री घबरा उठी ।
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भोजन करने का समय सन्निकट था । अतएव विलम्ब न करके नागश्री ने कडुवे तुम्बे के शाक को एक ओर छिपाकर रख दिया और उसके बदले दूसरे मोठे तुम्बे का शाक तैयार कर लिया ।
उसके बाद तीनों ब्राह्मणों ने और उनकी पत्नियों ने साथ में बैठकर भोजन किया और वे अपने अपने घर चले गये ।
उस समय धर्मघोष नामक स्थविर बहुत बड़े शिष्य परिवार के साथ चम्पा नगरी के सुभूमिभाग उद्यान में पधारे । उन्होंने साधु के योग्य उपाश्रय की याचना की और वहाँ धर्मध्यान करते हुए रहने लगे । उन्हें वन्दना करने के लिये परिषद् निकली । स्थविर मुनिराज ने धर्म का उपदेश दिया । उपदेश सुनकर परिषद् वापिस चली गई । धर्मघोष स्थविर के एक शिष्य थे जिनका नाम था धर्मरुचि अनगार । ये तेजोलेश्या से सम्पन्न थे और घोर तपस्वी थे । मास मास खमण का तप करते थे ।
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उस दिन उनका माम खमण का पारणा था । उन्होंने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया। दूसरे प्रहर में ध्यान किया। तीसरे प्रहर में पात्रों का प्रतिलेखन कर उसे ग्रहण किया और धर्मघोष स्थविर से भाज्ञा प्राप्त कर आहार के लिए चम्पा नगरी की ओर चले गये । ऊँच नीच और मध्यम कुलों में आहार की गवेषणा करते हुए नागश्री के घर जा पहुँचे । परिजनों की निंदा के भय से नागश्री ने कडुवे तुम्बे के शाक को छिपा कर रखा था वह उसकी व्यवस्था का विचार कर ही रही थी कि इतने में तपस्वी को अपने घर में भिक्षा के लिए आते देखा । खड़े होकर उसने तपस्वी का स्वागत किया और उस कडुवे तुम्बे के शाक को धर्मरुचि अनगार के पात्र में उँडेल दिया ।