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आगम के अनमोल रत्न
उत्तर भारत में वीर संवत ५८० में भयंकर दुष्काल पड़ा। उस समय आपने अपने प्रमुख शिष्य वज्रसेन को साधु संघ के साथ सुभिक्ष प्रधान सोपारक एवं कोंकण देश में भेज दिया और साथ में यह भी भविष्यवाणी की कि एक लाख सुवर्ण मुद्रा की कीमत का विष मिश्रित चावल जिस दिन आहार में तुम्हें मिलेगा उसके दूसरे ही दिन सुभिक्ष प्रारम्भ हो जायगा । स्वयं अपने साधु समूह के साथ रथावर्त पर्वत पर अनशन कर दिवङ्गत हुए। इनके चार मुख्य शिष्य थे-आर्य वज्रसेन, आर्य पद्म, आर्यरथ, और आर्य तापस । वज्रस्वामी से वीर सं. ५८१ में वज्रीशाखा निकली । आपका जन्म वीर सं. ४९६, दीक्षा वीर सं. ५०४, आचार्यपद वीर सं. ५४८ एवं स्वर्गवास वीर सं. ५८४ हुआ।
६. रक्षितसरि । आर्य वज्रसेन के समकालीन आचार्य । आप मालव प्रदेश के दशपुर (मन्दसौर) नगर के निवासी रुद्रसोम पुरोहित के पुत्र थे। माता की प्रेरणा से दृष्टिवाद का अध्ययन करने के लिये वहीं इक्षुवन में विराजित आचार्य तोसलिपुत्र के पास पहुँचे और मुनि बन गये । आगमिक साहित्य का प्रारंभिक अभ्यास तोसलिपुत्र से किया और ९॥ पूर्व तक दृष्टिवाद का अध्ययन आर्य वज्रस्वामी से किया। आपने सूत्रों को द्रव्य; चरण-करण, गणित, एवं धर्मकथा इस प्रकार के चार अनुयोगों में विभक्त किया। चारों अनुयोग सम्बन्धी भर्थ को गौण रखकर आपने एक प्रधान अर्थ को कायम रखा।
यह सब कार्य द्वादशवर्षी दुष्काल के बाद दशपुर में हुआ। इस भागमवाचना का समय वीर सं. ५९२ के लगभग है। इस आगम वाचना में वाचनाचार्य आर्य नन्दिल, युगप्रधान आर्य रक्षित और गणा चार्य आर्य वज्रसेन ने प्रमुख भाग लिया था।