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आगम के अनमोल रत्न
aaaaaaaaaaaaaaaa पुन. शुक ने कहा-भगवन् ! आपकी यात्रा क्या है ?
थावच्चापुत्र-हे शुक! जानदर्शन, तप संयम आदि योगोंसे षटकाय के जीवों की यतना (रक्षा) करना ही हमारी यात्रा है।
शुक-भगवन् ! यापनीय क्या है ?
अनगार-शुक | चापनीय दो प्रकार का है-इन्द्रिययापनीय और नोइन्द्रिय यापनीय।
शुक-इन्द्रिय यापनीय किसे कहते हैं ?
अनगार-शुक ! हमारी श्रोतेन्द्रिय, चक्षुइन्द्रिय, घ्राणेन्द्रिय, रसनेन्द्रिय और पर्शनेन्द्रिय विना किसी उपद्रव के वशीभूत रहती है, यही हमारा इन्द्रिय यापनीय है ।
गुक-नो इन्द्रिय यापनीय क्या है ?
अनगार-शुक : क्रोध, मान, माया, लोभरूप कषाय क्षीण हो गये हों, उपशान्त हो गये हों, उदय में नहीं आ रहे हों, वही हमारा नो इन्द्रिय यापनीय है।
शुक-भगवन् ! अव्यायाध क्या है ? अनगार-हे शुक । रोग उदय में न आवे यही हमारा भव्यावाव है। शुक-भगवान् ! प्रासुक विहार क्या है ?
अनगार-हे शुक ! निर्दोष स्थान में निर्दोष वस्तु को ग्रहण कर ठहरना ही हमारा प्रासुक विहार है।
शुक-भगवन् ! आपके लिये सरिसवया भक्ष्य है या अभक्ष्य है ? भनगार-हे शुक! 'सरिसवया' हमारे लिए भक्ष्य भी है भौर अभक्ष्य भी
शुक-भगवन् किस अभिप्राय से आप ऐसा कहते हो कि सरिसवया भक्ष्य भी है और अभक्ष्य भी है ? ।
थावच्चापुत्र अनगार-हे शुक ! 'सरिसवया' दो प्रकार का है-एक मित्र सरिसवया और दूसरा धान्य सरिसवका (सरसौ) उनमें जो धान्य सरिसवया है वह यदि शन्न परिणत, प्रासुक, याचित, एषणीय, लब्ध है