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आगम के अनमोल रत्न
हैं । वे अब बाहर जनपद में भी विचरण करना नहीं चाहते । संयमी के लिए यह सब वज्यं है । अतः हम लोगों को चाहिये कि प्रातः होते ही शैलक राजर्षि की आज्ञा ले प्रातिहारिक पीठ, 'फलक भादि को वापिस कर पन्थक अनगार को उनकी सेवा में रख विहार कर दिया जाय । इस प्रकार विचार कर दूसरे दिन प्रातः १९९ अनगारों ने बाहर जनपद में विहार कर दिया। पन्थक शैलक राजर्षि की सेवा में रह गया ।
एक बार शैलक राजर्षि कार्तिक चातुर्मास के दिन विपुल अशन, पान, खाद्य स्वाय और मादकपदार्थ का सेवन कर पूर्वाह्न के समय, सुख पूर्वक सोगये।
पन्थक अनगार ने चातुर्मासिक कायोत्सर्ग कर दिवस सन्बन्धी प्रतिक्रमण कर चातुर्मासिक प्रतिक्रमण की इच्छा से उनकी आज्ञा प्राप्त करने उनके पास आये और चरण स्पर्श कर वन्दन करने लगे।
पन्धक मुनि के चरण स्पर्श से शैलक राजर्षि की निद्रा भंग हो गई। वे तत्काल रुष्ट हो कर बोल उठे । अरे दुष्ट, मेरी निद्रा को भङ्ग करने वाला तू कौन है ? क्या तुझे अपनी जान प्यारी नहीं है ? पन्थक क्रुद्ध गुरुदेव को शान्त करते हुए बोले-भगवन् ! और कोई नहीं है, मैं आपका शिष्य पन्थक हूँ। चातुर्मासिक प्रतिक्रमण की आज्ञा लेने मैं आपके पास आया था और मैने ही आपके चरण स्पर्श करने की धृष्टता की है। मेरे इस अपराध के लिए आप क्षमा करें।
पन्थक की यह बात सुन शैलक राजर्षि चौंक गये । बोलेपन्थक ! क्ा आज कार्तिकी चातुर्मास है ? पन्थक-हाँ भगवन्, शैलक राजर्षि उसी क्षण उठे और अपने आपको कोसने लगे। मुझे धिक्कार है। मैने विशाल राज्य का परित्याग कर संयम ग्रहण किया है। मुझे इस प्रकार शिथिल होकर रहना नहीं कल्पता शैलक राजर्षि ने अपने