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आगम के अनमोल रत्न
समान इनका नीलवर्ण था । इनके वक्षस्थल पर श्रीवत्स का चिन्ह था । इनके मस्तक के केश कोमल और घुंघराले थे । ये नलकुबेर के समान रूपवान थे । इनके एक समान रूप और आकृति को देख कर जनता भ्रम में पड़ जाती थी और आश्चर्य चकित हो जाती थी । विवाह होने के बाद ये कुमार विषयसुख में निमग्न हो गये ।
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मोहनिद्रा को भंग करने वाले करुणासागर भगवान अरिष्टनेमि का भद्दिलपुर नगर में आगमन हुआ । वे श्रीवन उद्यान में विराजे । नगर के हजारों जन दर्शन और अमृत वाणी का महालाभ लेने भगवान की सेवा में पहुँचे । अनिक्सेन आदि कुमार भी कथा सुनने के लिये अपने महल से निकले । धर्मकथा सुनकर अनिकसेन आदि छ कुमारों ने भगवान से प्रार्थना की--"हे भगवन् ! हम अपने माता पिता से पूछ कर आपके पास दीक्षा ग्रहण करना चाहते हैं । उसके बाद छहों कुमार घर आये और माता पिता से दीक्षा के लिये आज्ञा मांगी । माता पिता के बहुत समझाने पर भी भोग विलास की समस्त सामग्री को छोड़ कर ये अनगार बन गये । अनगार बनने के बाद ईर्या समिति, भाषा समिति आदि से लेकर भगवान के कहे हुए प्रवचनों का पालन करते हुए विचरने लगे । इन्होंने गीतार्थ स्थविरों के पास रह कर चौदह पूर्व का अध्ययन किया और यावज्जीवन बेले बेले का तप करने की प्रतिज्ञा ग्रहण की ।
एक समय बेले के पारने के दिन इन छहों अनगारों ने प्रथम प्रहर में स्वाध्याय किया, दूसरे प्रहर में ध्यान किया और तीसरे प्रहर में भगवान के पास आकर इस प्रकार बोले- "हे भगवन्! आपकी आज्ञा हो तो आज बेले के पारने में हम छहों मुनि तीन संघाड़ों में विभक्त होकर मुनियों के कल्पानुसार सामुदायिक भिक्षा के लिये द्वारवती में जाने की इच्छा रखते हैं ।" भगवान ने फरमाया – “देवानुप्रियो ! जैसा तुम्हें सुख हो वैसा ही तुम करो ।" भगवान की आज्ञा प्राप्त