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आगम के अनमोल रत्न
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कर ये मुनि दो दो के तीन संघाड़े बनाकर आहार के लिए द्वारवती की भोर निकल पड़े।
इनमें से एक संघाड़ा द्वारवती में ऊंच, नीच और मध्यम कुलों में भिक्षा के लिए घूमता हुआ राजा वसुदेव और रानी देवकी के घर पहुँचा । मुनियों को माहार के लिए माता देख देवकी रानी अपने आसन से उठी और सात आठ कदम उनके सामने गई और बोली"मैं धन्य हूँ' ने मेरे घर अनगार पधारे । मुनियों के पधारने से । उसके मन में अत्यन्त हर्ष उत्पन्न हुआ। विधिपूर्वक वन्दना नमस्कार करके वह मुनियों को रसोई घर में ले गई । वहाँ 'सिंहकेसरी' मोदक का थाल भर कर लाई और अनगारों को प्रतिलामित कर वन्दना नमस्कार किया और उनको विसर्जित किया ।
उसके बाद दूसरा संघाड़ा भी देवकी के घर आहार के लिए पहुँचा और देवकी ने पूर्ववत् मुनियों का विनयकर उन्हें 'सिंहकेसरी' मोदक से प्रतिलामित कर विसर्जित किया ।
___ इसके बाद तीसरा संघाड़ा भी उसी तरह देवकी महारानी के घर आया । देवकी महारानी ने उसे भी उसी आदर भाव से 'सिंहकेसरी' मोदक वहराया । मुनियों को पुनः पुनः आहार के लिए माता देख देवकी के मन में शंका उत्पन्न हुई और वह विनयपूर्वक पूछने लगी-"भगवन् । कृष्णवासुदेव जैसे महाप्रतापी राजा की नौ योजन चौड़ी और बारह योजन लम्वी स्वर्गलोक के सदृश इस द्वारवती नगरी में आहार के लिए धूमते हुए श्रमणों, निर्गन्थों को क्या आहारपानी नहीं मिलता जिससे एक ही कुल में बार बार आना पड़ता है ?"
महारानी देवकी की यह बात सुनते ही मुनि समझ गये कि महारानी को हमारे रूप-सादृश्य के कारण ही एक संघाडे का बार बार भाने का भ्रम हो गया है । मुनियों ने कहा___महारानी, हम सब एक नहीं हैं । अलग अलग हैं जो पहले आये थे वे हम नहीं । जो दूसरी बार आये थे, वे पहले वाले नहीं