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आगम के अनमोल रत्न
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भी हूँ। प्रदेशों की अपेक्षा से मैं अक्षय भी हूँ, भव्यय भी हूँ, अवस्थित भी हूँ। उपयोग की अपेक्षा से अनेक भूत (अतीतकालीन) भाव (वर्तमान) कालीन और भावी-भविष्यत् कालीन भी हूँ । अर्थात् अनित्य भी हूँ। तात्पर्य यह है कि आत्मा का गुण उपयोग है यह गुण आत्मा से कंथचित् अभिन्न है और वह भूत, वर्तमान और भविष्यत् कालीन विषयों को जानता है और सदैव परिवर्तित होता रहता है । इस प्रकार उपयोग भनित्य होने से भात्मा भी कन्थंचित भनित्य है।
थावच्चापुत्र अनगार के उत्तर से शुक परिव्राजक को बड़ा सन्तोष हुआ । उसने खड़े हो कर थावच्चापुत्र अनगार को विनय पूर्वक वन्दन किया और धर्म का श्रवण किया । धर्म श्रवण कर बोला-भगवन् ! आपका निर्गन्य प्रवचन मुझे अत्यन्त रुचिकर लगा। मेरी निर्गन्य प्रवचन में अत्यन्त श्रद्धा उत्पन्न हो गई है । मै अपने हजार शिष्य परिव्राजकों के साथ आप के समीप दीक्षा ग्रहण करना चाहता हूँ। यह कहकर शुक परिवाजक ने अपने हजार परिव्राजकों के साथ एकान्त में जाकर परिवाजकों का वेश त्याग दिया और अपने हाथों से शिखा उखाड़ ली । उखाड़ कर अपने हजार शिष्यों के साथ थावच्चा पुत्र अनगार के पास प्रव्रज्या अगीकार कर ली । तत्पश्चात् सामायिक से आरंभ करके चौदह पूर्वो का अध्ययन किया । उसके बाद शुक अनगार अपने एक हजार शिष्यों के साथ निर्गन्थ धर्म का प्रचार करते हुए अलग विहार करने लगे।
थावच्चापुत्र अनगार अपना अन्तिम समय सन्निकट जानकर हजार साधुओं के साथ जहाँ पुण्डरीक-शत्रुजय पर्वत था वहाँ आये
और धीरे धीरे पुण्डरीक पर्वत पर चढ़े। वहाँ श्याम वर्णीय शिलापट्ट पर भारूढ़ हो कर पादोपगमन अनशन ग्रहण किया । एक मास का
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