________________
३९८
आगम के अनमोल रत्न
भद्रबाहु को बहुत कम समय मिलता था, वैसे दृष्टिवाद का अध्ययन सरल नहीं था । इसलिये दूसरे साधु तो घबराकर वापस चले आये किन्तु स्थूलिभद्र वही रहे । व्रत पूरा होने के बाद भद्रबाहु ने १४ पूर्वो में १० पूर्व स्थूलिभद्र को अर्थ सहित सिखा दिये और वे विहार करते हुए पाटलीपुत्र पहुँच गये ।
स्थूलिभद्र योगविद्या के भी आचार्य थे। अनुश्रुति है कि स्थू'लिभद्र ने एक दिन अपनी विद्या की शक्ति देखने के लिए रूप परिवर्तन कर लिया और सिंह का रूप बना कर एक जीर्णोद्यान में बैठ गये । इतने में उनकी सातों बहनें जो साध्वी हो चुकी थीं, दर्शनार्थ जीर्णोद्यान में पहुँची । स्थूलिभद्र को सिंह के रूप में देख कर वे डर गई और लौट आई। जब भद्रबाहु को इस घटना का पता चला तो उन्होंने स्थूलिभद्र को आगे पढ़ाना बन्द कर दिया । बहुत आग्रह करने पर उन्होंने स्थूलिभद्र को शेष चार पूर्व मात्र सिखाए और उन्हें भी भविष्य में सिखाने की मनाही कर दी। इस प्रकार स्थूलिभद्र के के पश्चात् पूर्वो का ज्ञान उत्तरोत्तर विलुप्त होता गया ।
भद्रबाहु के पट्ट पर स्थूलिभद्रमुनि वीर संवत १७० में आसीन हुए और युग प्रधान बने । भाचार्य स्थूलिभद्र की यक्षा आदि बहनों द्वारा चूलिका सूत्रों के रूप में आगम साहित्य की वृद्धि हुई थी। चार चूलिकाओं में से भावना और निमुक्ति, भाचारांग सूत्र के तथा रति वाक्य और विविक्तचर्या दशवैकालिक सूत्र के परिशिष्ट रूप में वीर सं. १६८ के आसपास जोड़ दी गई जो भाज भी साधना-जीवन में प्रकाशकिरणे विकीर्ण कर रही हैं। स्थूलिभद्रमुनि ने श्रावस्ती के धनदेव श्रेष्ठी को जैनधर्म में दीक्षित किया था। आर्य महागिरि और आर्य सुहस्ती आपके प्रधान शिष्य थे। स्थूलिभद्र दीर्घायु थे। आपके समय में मगध में राज्यक्रान्ति हुई थी तथा नन्द साम्राज्य का उच्छेद और मौर्य साम्राज्य की स्थापना हुई थी। मौर्यसम्राद चन्द्रगुप्त, बिन्दुसार, अशोक और कुणाल भी भापके समक्ष थे। कौटिल्य अर्थशास्त्र का निर्माता