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आगम के अनमोल रत्न
किया परन्तु जब स्थूलिभद्रमुनि लौटे तो गुरुदेव खड़े हो गये, सात आठ कदम सन्मुख गये, हर्ष गद्गद् वाचा में "दुष्कर-दुष्कर कारक'' तपस्वी कहकर उनका भावभीना स्वागत किया । यह देखकर दूसरे शिष्यों के मन में ईर्ष्या उत्पन्न हो गई । वे सोचने लगे-हमने इतना लम्बा तप किया और सिंह की गुफा में अथवा सांप की बांबी पर चार महिने बिताए । स्थूलिभद्र वैश्या की चित्रशाला में आनन्द से रहे, पइरस भोजन किया फिर भी गुरु ने हमसे भी ज्यादा 'सत्कार किया । ऐसा सोच वे मन ही मन मन जलने लगे।
दूसरे वर्ष अब चातुर्मास का समय आया तो सिंह की गुफा में चातुर्मास रहने वाले मुनि ने कोशा की चित्रशाला में रहने की अनुमति मांगो । गुरु ने समझाया-"यह कार्य तुम से नहीं हो सकता । अशक्यानुष्ठान का आग्रह छोड़ दो।" किन्तु वह नहीं माना और कोशा के घर चला गया। वहाँ पहुँचने पर पहली रात को ही वह विचलित हो उठा और कोशा से भोग की प्रार्थना करने लगा । उसे व्रतभंग से बचाने के लिए केशा ने कहा-"मुझे रत्नकम्बल की आवश्यकता है । नेपाल के राजा के पास जाकर उसे ला दो तो मैं तुम्हारी प्रार्थना पर विचार करूँगी । साधु काम में अन्धा हो चुका था । चातुर्मास की परवाह न करके नेपाल पहुँचा और वहाँ से रत्नकम्बल लाया । मार्ग में उसे लुटेरों ने पकड़ लिया। उनसे किसी प्रकार छुटकारा पाकर वह कोशा के पास पहुँचा । कोशा ने बड़े प्रेम से उसे ग्रहण किया। मुनि की हिम्मत की बड़ी प्रशंसा की और रत्नकम्बल को भी बड़ी सराहना की किन्तु दूसरे ही क्षण कोशा ने अपना रुख बदला। मुनि के प्रति अत्यन्त उपेक्षा दिखाते हुए कोशा ने कम्बल से अपने गन्दे पैर पोंछे और उसे गन्दे पानी की नाली में डाल दिया । यह सब देखकर मुनि को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह क्रोध की भाषा में गरजता हुआ बोला-"कठोर परिश्रम से प्राप्त वहुमूल्य रत्नकम्बल को कहीं यो नाली में फेंका जाता है ?" कोशा