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आगम के अनमोल रत्न
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ग्रह तक का जीवन पर्यन्त के लिये प्रत्याख्यान किया था। इस समय भी मै उन्हीं भगवन्तों के समीप सम्पूर्ण प्राणातिपात से परिग्रह तक का प्रत्याख्यान करता हूँ। जीवनपर्यन्त के लिये साथ ही अन्तिम श्वासोच्छवास के साथ अपने इस शरीर का तथा अठारह पापस्थानों का भी परित्याग करता हूँ । इस प्रकार आलोचना प्रतिक्मण करके समाधि पूर्वक अनगार ने देह का परित्याग किया ।
चिरकाल तक धर्मरुचि अनगार को वापस न आया देख धर्मघोष स्थविर ने श्रमणों को बुलाकर कहा-श्रमणों ! धर्मरुचि अनगार क्तुं चे का शाक परठने (डालने) के लिए स्थंडिलभूमि में गया हुआ है किन्तु वहुत समय होगया है वह वापस नहीं लौटा अतः तुम जाओ और उसकी खोज कर आओ।
गुरुदेव का भादेश पाकर कुछ श्रमण धर्मरुचि की खोज करने के 'लिए स्थंडिल भूमि पर गये । वहां उन्होंने धर्मरुचि के निष्प्राण देह
को देखा । उनके मुख से सहसा यह शब्द निकला-हा ! हा ! यह बड़ा बुरा हुआ । इस महातपस्वी ने जीव रक्षा के लिए अपने प्राण को वलि वेदी पर चढ़ा दिया । धन्य है मुनिवर ! मृत्यु तुमको न जीत सकी किन्तु तुमने तो देखते ही देखते मृत्यु को जीत लिया ?
मुनियों ने धर्मरूचि अनगार के कालधर्म के निमित्त कायोत्सर्ग किय । उनके पात्र आदि को लेकर वे धर्मघोष स्थविर के पास आये
और विनय पूर्वक बोले-~-धर्मरुचि अनगार की मृत्यु हो गई है । यह हैं उनके पात्र और चीवर । उस तपस्वी ने जीवों की रक्षा के लिये अपने प्राणों का उत्सर्ग कर दिया ।
धर्मरुचि भनगार की मृत्यु सुनकर धर्मघोष स्थविर ने अपने पूर्व ज्ञान का उपयोग लगाया और उन्होंने अपने पूर्वज्ञान में धर्मरुचि की मृत्यु के बाद का भव जान लिया। उन्होंने श्रमणों से कहा-श्रमणों! धर्मरुचि अनगार स्वभाव से भद्र और विनीत प्रकृति का था । उसने जीवन रक्षा के लिये कडवे तुम्वे का शाक खा कर अपने देह का उत्सर्ग