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आगम के अनमोल रत्न
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जीवन के धार्मिक विकास का शाश्वत् मार्ग दिखाया जा रहा था । भगवान के उपदेश का थावच्चापुत्र पर गहरा असर पड़ा । उसके हृदय सरोवर में वैराग्य की तरंगे निरन्तर उठने लगी । उसके मन पर से मानवोचित सांसारिक वैभव की भावना इस तरह से उतर गई जैसे साँप के शरीर पर से पुरानी काँचली उतर जाती है । अब उसे संसार की विषय वासना से घृणा होने लगी।
सबके चले जाने पर थावच्चापुत्र भगवान के सन्मुख उपस्थित होकर नम्रभाव से बोला-भगवन् । भापका प्रवचन मुझे अत्यन्त प्रिय
और यथार्थ लगा । मेरी इच्छा है कि मैं आपके चरणों में मुण्डित होकर प्रव्रजित हो जाऊँ । एकमात्र माता से पूछना ही शेष है उनसे यूछ कर शीघ्र ही प्रव्रज्या के लिए आपकी सेवा में उपस्थित होता हूँ। भगवान ने उत्तर में कहा-जैसे तुम्हं सुख हो वैसा करो, किन्तु ऐसे काम में विलम्ब मत करो। यह सुन थावच्चापुत्र भगवान को नमस्कार कर घर पहुंचा । माता को प्रणाम कर कहने लगा--
___ मैने आज भगवान का उपदेश श्रवण किया। उनके उपदेश से मेरा मन संघार से ऊब गया है। मेरी इच्छा है कि मैं भगवान के चरणों में उपस्थित होकर दीक्षा ग्रहण कर लें । थावच्चापुत्र ने बड़ी नम्रता से माता के सामने अपना मनोभाव व्यक्त किया और स्वीकृति मांगी। ___अपने प्रिय और एकलौते पुत्र की यह बात सुन गाथापत्नी आवाक् सी रह गई । उसे स्वप्न में भी खयाल नहीं था कि मेरा यह सुकुमार युवापुत्र अपनी बत्तीस अनिद्य सुन्दरियों का एव अपार धनराशि का परित्याग कर इतना जल्दी अनगार वनने के लिए उद्यत हो जायगा । वह बेसुध होकर पृथ्वी पर गिर पड़ी । जब दासियों के उपचार से कुछ सचेत हुई तो वह स्नेह पूर्ण हृदय से व मीठे शब्दों से थावच्चापुत्र को दीक्षा न लेने के लिए समझाने लगी। वह कहने लगी-पुत्र ! तुम अभी युवा हो, तुम्हारा शरीर भी अत्यन्त कोमल