________________
आगम के अनमोल रत्न
__ इधर कोशा ने भी अपनी क्ला दिखलाने के लिए आंगन में सरसों का ढेर करवाया उस पर एक सुई टिकाई और एक पुष्प रखकर नयनाभिराम नृत्य करना शुरू किया । नृत्य को देखकर रथिक चकित हो गया । उसने प्रशंसा करते हुए कोशा से कहा-"तुमने बड़ा अनोखा काम किया है।"
यह सुनकर कोशा बोली-"न तो विद्या से दूर बैठे आप का लुम्ब तोड़ लाना ही कोई अनोखा काम है और न सरसों के ढेर पर सुई रखकर और उस पर पुष्प रखकर नाचना ही । वास्तव में अनोखा काम तो वह है जो महाश्रमण स्थूलिभद्र मुनि ने किया । वे प्रमदा-रुपी बन में निशंक विहार करते रहे फिर भी मोह प्राप्त होकर भटके नहीं। • भोग के अनुकूल साधन प्राप्त थे । पूर्व परिचित वैश्या और वह भी अनुकूल चलने वाली, षदरस युक्त भोजन, सुन्दर महल, युवावस्था, सुन्दर शरीर और बर्षाऋतु-इनके योग होने पर भी जिन्होंने असीम मनोवल का परिचय देते हुए काम राग को पूर्ण रूप से जीता और भोग रूपी कीचड़ में फंसी हुई मुझ जैसी अधम गणिका को अपने उच्चादर्श
और उपदेश के प्रभाव से प्रतिवोधित किया; उन कुशल महान आत्मा स्थूलिभद्र मुनि को मै नमस्कार करती हूँ। पर्वत पर, गुफाओं में, वन में,, था इसी प्रकार के किसी एकान्त में रहकर इन्द्रियों को वश में करने वाले हजारों हैं परन्तु अत्यन्त विलासपूर्ण भवन में लावण्यवती युवती के समीप में रहकर इन्द्रियों को वश में रखनेवाले तो शकडाल-गन्दन स्थूलिभद्र एक ही हुए।"
इस प्रकार स्तुति कर कोशा ने स्थूलिभद्र मुनि की सारी कथा रथिक को सुनाई । स्तुति वचनों से रथिक को प्रतिबोध प्राप्त हुआ और स्थूलिभद्र के पास जा उसने मुनिव्रत धारण किया ।
वर्षाकाल की मर्यादा होने पर मुनि अपने गुरु के समीप लौट आये । गुरु ने प्रथम तीनों का 'दुश्करकारक' तपस्वी के रूप में स्वागत