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ग्यारह गणधर
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थी । वह सोचने लगा- " मेरे सर्वज्ञ होते हुए यह दूसरा कौन सर्वज्ञ यहाँ आ उपस्थित हुआ है । मूर्ख मनुष्य को तो ठगा जा सकता है । पर इसने तो देवताओं को भी ठग लिया। तभी तो ये देवगण मुझ जैसे सर्वज्ञ का त्याग करके उस नये सर्वज्ञ के पास जा रहे हैं परन्तु कुछ भी हो मुझे इस नये सर्वज्ञ की पोल खोलनी ही पड़ेगी ।"
अब वह महासेन उद्यान की तरफ से आनेवालों से बार वार पूछता - "क्यों कैसा है वह सर्वज्ञ !" उत्तर मिलता - "कुछ न पूछिये ज्ञान और वाणी माधुर्य में उनका कोई समकक्ष नहीं है ।" इस जन प्रवाद ने इन्द्रभूति को और भी उत्तेजित कर दिया । उन्होंने इस नूतन सर्वन से भिड़वर अपनी ताकत का परिचय देने का निश्चय किया और अपने ५०० छात्र संघ के साथ महासेन उद्यान की ओर चल दिये । अनेक विचार-विमर्श के अन्त में इन्द्रभूति भगवान महावीर की धर्मसभा के द्वार तक पहुँचे और वहीं स्तब्ध से होकर खड़े रह गये ।
इन्द्रभूति ने अपने जीवनकाल में बहुत पण्डित देखे थे, बहुतों से टक्कर ली थी । बहुतों को वादसभा में निरुत्तर करके नीचा ! दिखाया था और यहाँ भी वे इसी विचार से आये थे, पर जब उन्होंने महावीर के समवशरण के द्वार पर पैर रखा तो महावीर के योगेश्वर्य और भामंडल को देखकर वे चौधिया गये, उनकी विजय-कामना शान्त हो गई । वे अपनी अविचारित प्रवृत्ति पर अफसोस करने लगे । फिर सोचा- यदि ये मेरी शंकाओं को बिना पूछे ही निर्मूल कर दे तो इन्हे सर्वज्ञ मान सकता हूँ ।
इन्द्रभूति इस उधेड़बुन में ही थे कि भगवान महावीर उन्हें सम्बोधित करते हुए बोले -- हे गौतम, वया तुम्हें पुरुष - आत्मा के अस्तित्व के सम्बन्ध में शंका है ?"
इन्द्रभूति---"हाँ भगवन् ! मुझे इस विषय में शंका है क्योंकि · विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानु विनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति ।" इत्यादि वेद वावय भी इसी बात का समर्थन करते हैं