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ग्यारह गणधर
सचमुच वे ज्ञान के अथाह समुद्र और धर्म के अवतार है । दूसरा कहता-अजी, वह पक्का इन्द्रजाली है उसने ऐसी करामात की है जिससे वह मोहित होकर अपने छात्रों के साथ साधु बन गया है।
उनका छोटा भाई अग्निभूति उनकी विद्वत्ता का इतना कायल था कि वह यह तो मानने को तैयार हो सकता था कि सूर्य का उदय पश्चिम में हो परन्तु यह नहीं कि इन्द्रभूति किसी से हार जाये और उसका शिष्य हो जाये। वह कुछ क्रोध कुछ आश्चर्य और कुछ अभिमान के भावों के साथ अपने छात्र-मण्डल सहित महासेन उद्यान की
ओर चल पड़े। उन्हें पूर्ण विश्वास था कि किसी भी तरह वे महावीर को परास्त करके बड़े भाई इन्द्रभूति को वापस ले आएंगे ।
अग्निभूति जब नगर से निकले तो उसके शरीर में बड़ी तेजी थी पर ज्यों ज्यों वह आगे बढ़ने लगे त्यों त्यों उसका शरीर भारी होने लगा । जब वे समवशरण के सोपानमार्ग तक पहुँचे तो उनके पैरों ने जबाव दे दिया। उनके मन का जोश बिलकुल ठंडा पड़ गया। वे सोचने लगा-"क्या सचमुच ये सर्वज्ञ ही हैं, क्या इसी कारण इन्द्रभूति ने अपनी हार मान ली है ? यदि यही बात है तो मैं यहीं से एक प्रश्न पूछूगा । यदि मुझे सही उत्तर मिल जायगा तो मैं भी उन्हें सर्वज्ञ मान लूँगा। अग्निभूति द्वार पर ही खडे थे कि महावीर ने उन्हें सम्बोधित किया-"प्रिय अग्निभूति ! क्या तुम्हे कर्म के अस्तित्व के विषय में शंका है ।" _अग्निभूति-"हाँ भगवन् ! कर्म के अस्तित्व को में शंन की दृष्टि से देखता हूँ। क्योंकि-"पुरुष एवेदं अग्नि सर्व यद्भुतं यच्च भाव्यम् उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनाति रोहति यदेजति यन्नजति यहरे यदन्तिके । यदन्तरस्य सर्वस्य यद् सर्वस्यास्य वामतः ॥"
"अर्थात्-यह सारा संसार पुरुष अर्थात् आत्म रूप ही है। भूत और भविष्यत् दोगे आत्मा अर्थात् ब्रह्म ही हैं। मोक्ष का भी वही