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ग्यारह गणधर
____ महावीर-"यदि माया पुरुष की शक्ति ही है तो यह भी पुरुष के ज्ञानादि गुणों की तरह अरूपी, अदृश्य होनी चाहिये परन्तु यह तो दृश्य है । अतः सिद्ध होता है कि माया पुरुष की शक्ति नहीं वरन् यह एक स्वतन्त्र पदार्थ है ।"
"पुरुष विवर्त" मानने से भी पुरुषाद्वैत की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि पुरुष विवर्त का अर्थ है 'पुरुष के मूल स्वरूप की विकृति परन्तु पुरुष में विकृति मानने से उसे सकर्मक ही मानना पड़ेगा, अकमैक नहीं। जिस प्रकार खालिस पानी में खमीर उत्पन्न नहीं होता उसी प्रकार अकर्मक जीव में विवर्त नहीं हो सकता ।
"पुरुषवादी जिस पदार्थ को माया अथवा अज्ञान का नाम देते हैं वह वस्तुतः आत्मातिरिक्त जड़ पदार्थ है। पुरुषवादी इसे सत् या असत् न कहकर अनिर्वचनीय कहते हैं जिससे सिद्ध होता है कि यह पुरुष से भिन्न पदार्थ है। इसीलिये तो वे इसे पुरुष की तरह 'सत्' नहीं मानते 'असत्' न मानने का तात्पर्य तो केवल यही है कि यह माया आकाशपुष्प की तरह कल्पित वस्तु नहीं है।"
अग्निभूति-"ठीक है दृश्य जगत् को पुरुष मात्र, मानने से प्रत्यक्ष अनुभव का निर्वाह नहीं हो सकता । यह मै समझ गया हूँ परन्तु जड़े तथा रूपी कर्म-द्रव्य चेतन तथा अरूपी आत्मा के साथ कैसे सम्बद्ध हो सकता है और उस पर अच्छा-बुरा असर कैसे डाल सकता है ?'
महावीर-"जिस प्रकार भरूपी आकाश के साथ रूपी द्रव्यों का संपर्क होता है उसी प्रकार अरूपी आत्मा का रूपी कर्मों के साथ सम्बन्ध होता है। जिस प्रकार ब्राह्मी औषधी और मदिरा आत्मा के अरूपी चैतन्य पर भला बुरा असर करते हैं उसी तरह भरूपी चेतन आत्मा पर रूपी जड़ कर्मों का भी भला बुरा असर हो सकता है।" .
इस. लम्बी चर्चा के वाद अग्निभूति ने भगवान महावीर का