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आगम के अनमोल रत्न
अग्निभूति - "यह सब नामरूपात्मक जगत् है ।". महावीर - " यह पुरुष से भिन्न है या अभिन्न ?" महावीर - "अभी तुमने कहा था कि 'पुरुष' अदृश्य है इन्द्रयातीत है । इस पुरुषाभिन्न नामरूपात्मक जगत् का इन्द्रियों से कैसे प्रत्यक्ष हो रहा है ?”
अग्निभूति - " इस नामरूपात्मक दृश्य जगत की उत्पत्ति माया से होती है । माया तथा इसका कार्य नाम रूप सत् नहीं है क्योंकि कालान्तर में उसका नाश हो जाता है ।"
महावीर - "तो क्या दृश्य जगत असत् है ?”
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अग्निभूति - "नहीं। जैसे ये सत् नहीं वैसे असत् भी नहीं, क्योंकि ज्ञानकाल में वह सत् रूप से प्रतिभासित होता है ।"
महावीर - " सत् भी नहीं और असत् भी नहीं तब इसे क्या कहोगे ?"
अग्निभूति - " सत् असत से विलक्षण इस माया को हम अनिर्वचनीय कहते हैं ।"
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महावीर - "आखिर पुरुषातिरिक माया नामक एक विलक्षण पदार्थ मानना ही पड़ा । तब कहाँ रहा तुम्हारा पुरुषाद्वैतवाद ? हे अग्निभूति ! जरा सोचो ये दृश्य पदार्थ पुरुष से अभिन्न कैसे हो सकते हैं ? यह दृश्य जगत् यदि पुरुष ही होते तो 'पुरुष' की ही तरह यह भी इन्द्रियातीत होना चाहिए पर तुम इन्द्रियगोचर है । प्रत्यक्ष दर्शन को तुम अग्निभूति - "इसे भ्रान्ति मानने में महावीर - "भ्रान्तिज्ञान उत्तरकाल में भ्रान्त सिद्ध होता है । जिसे
देखते हो कि यह
नहीं कह सकते "
क्या आपत्ति है ? "
प्रत्यक्ष
भ्रान्ति
तुम भ्रान्ति कहते हो वह कभी भ्रान्ति रूप सिद्ध नहीं होता, अतः यह धि ज्ञान है, भ्रान्ति नहीं ।"
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अग्निभूति - ' यह भाया पुरुष की ही शक्ति है और पुरुष विवर्त में नाम-रूपात्मक जगत् बनकर भासमान होता है । वस्तुतः माया 'पुरुष' से भिन्न वस्तु नहीं है ।"
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