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आगम के अनमोल रत्न
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वररुचि बोला-'अगर यही बात है तो बुराइए अपनी पुत्रियों को मुझे इसी समय सत्यासत्य का निर्णय करना है।"
"बहुत अच्छा, तराजू तैयार है ।" यह कहकर महामन्त्री स्वयं अपनी पुत्रियों को बुलाने के लिए चले गये । सभागृह स्तब्ध था । थोड़ी ही देर में सातों पुत्रियाँ आकर खड़ी हो गई। एक को देखिये और दूसरे को भूलिये ! मानो सूर्य और चन्द्र की किरणों से बनी हुई हों। ये पुत्रियों सभा भवन के एक मंच पर आकर बैठ गई। वररुचि एक हाथ से शिखा बांधते हुए गम्भीर स्वर से श्लोक पंक्तियाँ सुनने लगा । सातों पुत्रियों ने एक के बाद एक सुनी हुई श्लोक पंक्तियों को दुहराना प्रारम्भ कर दिया । सभाजनों को बड़ा आश्चर्य हुआ। वररुचि को ऐसा प्रतीत होने लगा मानो आकाश और पाताल एक हो रहे हों । वररुचि ने दूसरी नई रचना उपस्थित की उसकी रचनाओं में अपूर्व पाण्डित्य झलक रहा था किन्तु यह क्या | महामात्य की कन्याएँ सभी श्लोक इस ढंग से दोहरा गई मानो उन्हें कण्ठस्थ हों। आकाश विहारी गरूइराम जैसे ब्याध के तीर से बिंध जाता है और तड़फता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ता है उसी प्रकार विद्वान वररुचि अपने भासन से गिर पड़े। हवा की दिशा बदलते जितना समय लगता है उतना ही समय प्रजा का अभिप्राय बदलते लगता है। वररुचि का गुणगाण करनेवाली सभा अब विपरीत आलोचना करने लगी। महाराजा भी वररुचि की निंदा करने लगे । शकडाल के इस कृत्य से वररुचि को राजा की ओर से मिलने वाला पुरस्कार सदा के लिये बंद होगया ।
__ वररुचि ने अब दूसरा उपाय सोचा । वह रात को गंगा में दीनारें छिपाकर रख देता, और दिन में आकर गंगा की स्तुति करता उसके बाद वह जोर से लात मारकर गंगा में से दिनारें निकाल लेता और कहना कि गंगा देवी उससे बहुत प्रसन्न हैं। राजा के कानों