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आगम के अनमोल रत्न
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स्वामी है जो अन्न से बढ़ता है, जो चलता है अथवा नहीं चलता। जो दूर है और समीप है । जो इस ब्रह्माण्ड के भीतर है या बाहर है वह सब ब्रह्म ही है । इन श्रुति वाक्यों से यही सिद्ध होता है कि जो ब्रह्माण्ड के भीतर दृश्य अश्य बाह्य अभ्यन्तर, भूत भविष्यत् है वह सब कुछ ब्रह्म ही है ब्रह्म से अतिरिक्त कोई पदार्थ नहीं ।
"युक्तिवाद भी कर्म का अस्तित्व सिद्ध नहीं कर सकता। कर्मवादी कहते हैं-जीव पहले कर्म करता है फिर उसका फल भोगता है परन्तु यह सिद्धान्त तर्क की कसौटी पर खरा नहीं उतरता । 'जीव' नित्य अरूपी और चेतन माना जाता है और 'कर्म' अनित्य रूपी और 'जड़' । इन परस्पर विरुद्ध प्रकृति वाले जीव और वर्म का एक दूसरे के साथ सम्बन्ध कैसा माना जायगा-सादि भथवा अनादि ?
"जीव और कर्म का सम्बन्ध 'सादि' मानने का अर्थ यह होगा कि पहले जीव कर्म रहित था और अमुक काल में उसका कर्म से संयोग हुआ परन्तु यह मान्यता कर्म-सिद्धान्त के अनुकूल नहीं । कर्म-सिद्धान्त के अनुसार जीव की मानसिक वाचिक और कायिक प्रवृत्तियाँ कर्मबन्ध 'का-जीव कर्म के संयोग का कारण होती है। मन, वचन और काय ये स्वयं कर्मफल हैं क्योंकि पूर्वबद्ध वर्म के उदय से ही मन आदि तत्त्व जीव को प्राप्त होते हैं। इस दशा में 'अबद्ध' जीव किसी भी प्रकार 'बद्ध' नहीं हो सकता, क्योंकि उसके पास बन्ध कारण नहीं है। यदि बिना कारण भी जीव 'कर्मबद्ध' मान लिया जाय, तो कर्म मुक्त सिद्धात्माओं को भी पुनः कमबद्ध, मानने में कोई आपत्ति नहीं होगी । इस प्रकार कर्मवादियों का 'मोक्ष' तत्त्व नाम मात्र को रह जायगा । वस्तुतः कोई भी आत्मा मुक्त ठहरेगा ही नहीं। भतः 'अबद्ध' जीव का 'बन्ध' मानना दोषापत्तिपूर्ण है।
__ "जीव और कर्म का अनादि सम्बन्ध भी मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता कारण कि जीव और कर्म का सम्बन्ध भनादि माना जायगा