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ग्यारह गणधर
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जिसे हृदयंगत कर मौर्यपुत्र अपने छात्रगण के साथ भगवान महावीर के शिष्य हो गये।
मौर्यपुत्र ने ६५ वर्ष की अवस्था में महावीर का शिष्यत्व स्वीकार किया । उन्यासी वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त किया । भगवान के जीवन काल के अन्तिमवर्ण, पंचानवे वर्ष की अवस्था में मासिक अनशन पूर्वक गुणशील चैत्य में निर्वाण प्राप्त किया ।
८. अकम्पित भगवान् महावीर के अष्टम गणधर का नाम अकम्पित था। अकम्पित मिथिला के रहनेवाले गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे । इनकी माता का नाम जयन्ती और पिता का नाम देव था ।
विद्वान अकम्पित तीन सौ छात्रों के अध्यापक थे । ये भी अपनी मण्डली के साथ सौमिलार्य के यज्ञ महोत्सव पर पावामध्यमा आये हुए थे। इनको नरक लोक और नारक जीवों के अस्तित्व में शंका थी। इस शंका का कारण "न ह वै प्रेत्य नरके नारका. सन्ति" यह श्रुति वाक्य था, परन्तु इसके विपरीत "नारको वै एव जायते यः शूद्रान्नमनाति" इत्यादि वाक्यों से नारकों का अस्तित्व भी सिद्ध होता था। इस प्रकार के द्विविध वेद वचनों से शंकाकुल बने हुए अकम्पित इस बात का कुछ भी निर्णय नहीं कर सकते थे कि नरक लोक और नारकों का अस्तित्व माना जाय या नहीं।
भगवान महावीर ने श्रुति वाक्यों का समन्वय करके अकम्पित का सन्देह दूर किया । अकम्पित भी निर्ग्रन्थ प्रवचन का उपदेश सुनकर संसार से विरक हुए और छात्र गण सहित आहती प्रव्रज्या स्वीकार को और भगवान महावीर के आठवे गणधर हो गये ।
अकम्भित ने अड़तालीस वर्ष की अवस्था में गृहत्याग किया । सत्तावन वर्ष की अवस्था में केवलज्ञान प्राप्त किया और श्रमण भगवान की जीवित अवस्था के अन्तिम वर्ष में राजगृह के वैभारगिरि पर मासिक अनशन पूरा करके अठहत्तर वर्ष की अवस्था में निर्वाण प्राप्त किया ।