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ग्यारह गणधर
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भगवान महावीर ने उक्त वेद वाक्यों का समन्वय करके जन्मान्तर वैसादृश्य सिद्ध करने के साथ सुधर्मा की शंका का समाधान किया । और निर्ग्रन्य प्रवचन का उपदेश सुनाकर उन्हें छात्रगण सहित निर्ग्रन्थ मार्ग की दीक्षा दी और अपना पांचवां प्रधान शिष्य बनाया।
सुधर्मा ने पचास वर्ष की अवस्था में प्रव्रज्या ली । वीर सं. १३ में अर्थात् अपनी आयु के ९३वें वर्ष में कैवल्य प्राप्त किया । वीर संवत् २० में सौ वर्ष की आयु पूर्णकर राजगृह के वैभारगिरि पर मासिक अनशनपूर्वक मुक्त हुए।
गौतम स्वामी को केवल ज्ञान होने पर समग्र संघ के संचालन का नेतृत्व आप पर ही आया । ग्यारह गणधर में से अग्निभूति आदि नौ गणधर तो भगवान के सामने ही निर्वाण को प्राप्त हो गये थे। अतः आप पर ही समस्त संघ के नेतृत्व का भार आ पड़ा यही कारण है कि भगवान महावीर के पश्चात् जो गणधर परम्परा आरम्भ होती है उसमें आपका नाम ही सर्वप्रथम आता है।
६. आर्य मण्डिक भगवान महावीर के छठे गणधर का नाम मंडिक था । मंडिक मौर्य सन्निवेश के रहने वाले वासिष्ठ गोत्रीय विद्वान ब्राह्मण थे । इनकी माता विजयदेवा और पिता धनदेव थे । वे तीन सौ पचास छात्रों के अध्यापक थे और सोमिल ब्राह्मण के आमंत्रण से उनके यज्ञोत्सव पर पावामध्यमा में आये थे ।
विद्वान् मण्डिक के विचार सांख्यदर्शन के समर्थक थे और उसका कारण "स एव विगुणो विभुन बध्यते संसरति वा न मुच्यते मोचयति वा न वा एष बाह्यमभ्यतरे वा वेद" इत्यादि अति वाक्य थे। इसके विपरीत "न ह वै सशरीरस्य प्रियाप्रिययोरपहतिरस्ति सशरीरं वा वसन्त प्रियाऽप्रिये न स्पृशतः" इस श्रति वाक्य से उन्हें