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ग्यारह गणधर
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पास आते थे। उनके समीप पाचसौ वुद्धिमान् छात्र पढ़ते थे। वे विद्यार्थियों को पढ़ाने के साथ-साथ यज्ञ होम आदि ब्राह्मण क्रियाकाण्डों को भी करवाते थे ।
उनके लघु भ्राता अग्निभूति और वायुभूति भी समर्थ विद्वान् थे । उनकी भी पाठशालाएँ चलती थीं, जिन में ५००-५०० छात्र अध्ययन करते थे।
उन दिनों मध्यमा पावापुरी में सोमिल नाम का एक धनाढ्य ब्राह्मण निवास करता था । उसने एक विशाल महायज्ञ का आयोजन किया। महायज्ञ में सम्मलित होने के लिये उसने देश देशान्तरों से बड़े बड़े विद्वान् ब्राह्मणों को आमंत्रित किया था।
सोमिल का आमंत्रण पाकर हजारों ब्राह्मगगण उस महायज्ञ में सम्मलित हुए। जिन में इन्द्रभूति, अग्निभूति, वायुभूति, व्यक्त, सुधर्मा मंडिक, मौर्यपुत्र, अकम्पित, अचलभ्राता, मैतार्य और प्रभास ये मुख्य थे । उन ग्यारह ब्राह्मण पंडितों का शिष्य परिवार विशाल था। उन ब्राह्मणों की विद्वत्ता की सर्वत्र प्रशंसा हो रही थी। .
उस समय केवलज्ञान प्राप्त भगवान महावीर ने देखा कि मध्यमा नगरी का यह प्रसंग अपूर्व लाभ का कारण होगा । यज्ञ में आये हुए विद्वान् ब्राह्मग प्रतिबोध पायेगे भोर धर्मतीर्थ के माधार-स्तंभ वनेंगे। यह सोच कर भगवान ने जंभिय गाँव की ऋजुवालिका नदी के तट से विहार कर दिया और बारह योजन (४८ कोस) चल कर मध्यम पावापुरी पहुँचे । वहाँ ग्राम के बाहर महासेन नामक उद्यान में ठहरे ।
___उस समय भगवान महावीर के द्वितीय समवशरण की रचना देवों ने महासेन उद्यान में की। वैशाख शुक्ला एकादशी को प्रात काल से ही महासेन उद्यान की तरफ नागरिकों के समूह उमड़ पड़े थे। अपने अपने वैभवानुसार सज-धज छर समवशरण में जाने के लिये मानों वे एक दूसरे से होड़ लगा रहे थे। थोड़े ही समय में देव दानवों'
और मनुष्य तियच्चों के समूहों से सारा वन भर गया । देवगण भी यज्ञमण्डप को लांघ लंघ कर भगवान के समवशरण में जाने लगे।