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वारह चक्रवर्ती
वन्दना करके सभी उचित स्थान बैठ गये । आचार्य का उपदेश सुनकर राजा और विष्णु कुमार दोनों संसार से विरक्त हो गये । महापद्म को गद्दी पर बैठाकर दोनों ने साथ में दीक्षा ले ली। कुछ दिनों के बाद पद्मोत्तर मुनि के घातीकर्म नष्ट हो जाने से उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हो गया बहुत दिनों तक केवल पर्याय का पालनकर अनेक भव्य प्राणियों को को प्रतिवोध देकर वे सिद्ध, वुद्ध और मुक्त हुए।
गहो पर बैठने के बाद महापद्म को चकरत्न की प्राप्ति हुई तथा क्रमशः भन्य तेरह रत्न भी उत्पन्न हुए । रत्नों की सहायता से उन्होंने छहों खण्डार विजय प्राप्त की । दिग्विजय कर जब महापद्म वापस हस्तिनापुर लौटे तो देवों ने आपका चक्रवर्ती पद का महोत्सव किया। यह महोत्सव बारह वर्ष तक चलता रहा। महोत्सव के समय तक महापद्म ने प्रजा को कर मुक्त रखा। वे भारतवर्ष के नौवें चक्रवर्ती के रूप में ख्यात हुए ।
विष्णुकुमार मुनि ने दीक्षा लेने के बाद घोर तपस्या शुरू की। उन्हे विविध प्रकार की लब्धियाँ प्राप्त हुई।
कुछ दिनों बाद सुव्रताचार्य विचरते विचरते पुनः हस्तिनापुर पधारे। उन्हें देखकर नमुचि मंत्री का पुराना विरोध जागृत हो गया। बदला लेने के उद्देश्य से उसने राजा पद्मोत्तर के दिये हुए वर को मांगा । महापद्म ने उसे देना स्वीकार कर लिया । नमुचि ने कहा"मै वेदोक्त विधि से यज्ञ करना चाहता हूँ। इसलिये कुछ दिनों के लिये मुझे अपना राज्य दे दीजिए ।" महापद्म ने पिता के दिये हुए वचन को पूरा करने के लिये मंत्री को राज्य दे दिया और स्वयं अपने महलों में जाकर रहने लगा।
नमुचि के राजा बनने के बाद जैन साधुओं को छोड़कर सभी बधाई देने गए । इसी छिद्र को लेकर उसने मुनियों को बुलाकर कहा "मेरे देश को छोड़ दो। नगर से अभी निकल जाओ। तुम लोग गन्दे रहते हो । लोकाचार का पालन नहीं करते । सभी साधु मुझे बधाई देने