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आगम के अनमोल रत्न
कृष्ण सोये हुए हैं परन्तु जब काफी समय हो गया तो उन्होंने कपड़ा उठाकर देखा । मालूम हुआ कि कृष्ण तो अब इस संसार में नहीं हैं । बलदेव एकदम मूच्छित होकर गिर पड़े। उन्होंने अपने भाई के वियोग में बहुत विलाप किया । छः महीने तक उनके मृत शरीर को कन्धे पर रखकर घूमते रहे । अन्त में मित्रदेव सिद्धार्थ के समझाने पर उन्होंने कृष्ण की मृत देह का अभि-संस्कार किया । भगवान अरिष्टनेमि ने एक विद्याधर श्रमण को बलदेव के पास भेजा । बलदेव ने उनके पास दीक्षा ग्रहण की। वे तुंगिया पर्वत पर जाकर तप करने लगे । बलदेव अत्यन्त सुन्दर थे । जब वे नगर में आहार के लिये निकलते तो स्त्रियाँ उनकी ओर मुग्ध भाव से देखने लगती थीं। एक चार वे मास खमन के पारणे के लिये नगर में जा रहे थे । एक स्त्री कुएं पर पानी भर रही थी । उसकी दृष्टि सुनि बलदेव पर पड़ी । वह उनपर इतनी मुग्ध होगई कि उसने घड़े के गले में रस्सी बाधने के बदले अपने बच्चे के गले में रस्सी का फंदा डालकर उसे कुँए में छोड़ दिया । बलदेव मुनि ने तुरत उस स्त्री को सावधान कर दिया और मनमें विचार करने लगे-- "मेरा शरीर भी अनर्थ का कारण है इसलिये अब मैं आहार के लिये नगर में नहीं जाऊँगा" । अब वे वन में ही रहने लगे और वहीं आने जाने वाले पथिकों से प्रासुक आहार ग्रहण कर अपना निर्वाह करने लगे ।
एक बार बलभद्र मुनि एक रथकार ( बढ़ई) से आहार के रहे
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थे । एक हिरण भी स्थाकार के उत्कृष्ट भावों को देखकर उसे मन ही मन धन्यवाद दे रहा था । उस समय सहसा पवन चला और एक वृक्ष की शाखा गिर पड़ी। इस शाखा के नीचे बलदेव मुनि की तथा हिरण की दबकर मृत्यु होगई । बलदेव मुनि पद्मोत्तर विमान में देव वने । रथकार की भी से मृत्यु होगई । रथकार और हिरण भी ब्रह्मदेव लोक के पद्मोत्तर विमान में उत्पन्न हुए । बलभद्र ने सौ वर्ष तक श्रामण्य पर्याय का पालन किया ।
भरकर ब्रह्म देवलोक के शाखा के नीचे दब जाने