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आगम के अनमोल रत्न
इधर द्वैपायन अग्निकुमार ने देखा कि नगरी के लोग आयबिल तप, जप आदि में लीन हैं तो वह चुप हो गया, परन्तु वह अवसर देखता रहा । कुछ समय बाद द्वारिकावासियों ने समझा कि द्वैपायन देव निस्तेज हो गया है, अतएव लोग निर्भय होकर -फिर आमोदप्रमोद में समय बिताने लगे । द्वैपायन देव. ने .मौका पाकर बहुत से तृण, काष्ठ, वृक्ष, लता आदि का ढेर करके उनमें आग लगा दी। क्षणभर में वह आग समस्त नगरी में फैल गई । बड़े-बड़े भवन टूट-टूट कर गिरने लगे, हाथो, घोड़े, बैल, गाय आदि पशु चिल्ला-चिल्लाकर इधर उधर भागने लगे तथा समस्त नगरी में दारुण हाहाकार मच गया । कृष्ण और बलदेव ने नगरी की जब यह दशा देखी तो वे अपनी माता रोहिणी, देवकी तथा पिता वसुदेव को रथ में बैठाकर जल्दी जल्दी भागने लगे परन्तु जब वे द्वार से बाहर निकलने लगे तो एकाएक रथ पर द्वार गिर गया । रोहिणी, देवकी एवं वसुदेव की वहीं मृत्यु हो गई । कृष्ण और बलदेव बाल बाल बच गये ।
द्वैपायन की लगाई हुई आग छः महीने तक जलती रही, जिसमें कृष्ण की अनेक रानियाँ तथा सगे-सम्बन्धी जलकर भस्म हो गये। जो कोई आग से बचके निकलता द्वैपायन उसे पकड़ पकड़ कर आग में झोंक देता था । कृष्ण और बलदेव से यह दारुण दृश्य देखा नहीं गया । वे पाण्डवों द्वारा बसाई गई नगरी पण्डुमधुरा की ओर चल पड़े। दोनों भाई सौराष्ट्र पार कर हस्तिकल्प पहुँचे । उस समय धृत. राष्ट्र का पुत्र अच्छन्दक वहाँ राज्य करता था । कौरव पाण्डवों के युद्ध में कृष्ण ने पाण्डवों का, जो साथ दिया था उसका रोष अभी भी अच्छन्दक के दिमाग में था। उसने कृष्ण और बलदेव को अकेला देखकर अपने वैर का बदला लेने के लिये भोजन लेने के लिये आते हुए बादेव पर एक उन्मत्त हाथी छोड़ दिया । जब कृष्ण को इस बात का पता लगा तो उसने , अच्छन्दक की खूब मरम्मत की । वे दोनों वहाँ से चलकर कोमुम्ब नामक अरण्य में गये । वहाँ पहुँचकर