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चारह चक्रवर्ती
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शाण्डिल्य की यशोमती नामक दासी से पुनरूप से उत्पन्न हुए। युवावस्था में हम दोनों सांप के डस जाने से मर गये थे, वहाँ से कालिंजर पर्वत में हम दोनों हिरण वने। वहाँ भी हम एक शिकारी द्वारा मारे गये। वहाँ से मर कर मृतगङ्गा के तीर पर हंस वने वहाँ भी पारधि द्वारा मारे गये । वहाँ से हम दोनों वाराणसी के भूतदत्त नामक चाण्डाल के घर जन्में । मेरा नाम चित्त और तुम्हारा नाम सम्भूत था। हम दोनों अत्यन्त रूपवान होने के साथ साथ संगीतज्ञ भी थे । हमारे संगीत से नगर के स्त्री पुरुष पागल से हो जाते थे। यहां तक की छुआछूत का भी लोग भान भूल गये थे। राजा को यह सहन नहीं हुभा और हम दोनों को अपने नगर से निकाल दिया । हम दोनों वहाँ से एक पहाड़ पर से कूदकर मरने जारहे थे किन्तु वहाँ एक ध्यानस्थ मुनि का लक्ष्य हमारी भोर गया उन्होंने हमें समझा कर प्रव्रज्या दी । हम दोनों कठोर तप करने लगे वहाँ से हम विहारकर हस्थिनापुर गये। हस्पिनापुर में नमुचि नामक सनत्कुमार चक्रवर्ती के मंत्री ने हमें चाण्डाल पुत्र तमझकर नगर के वाहर अपने सुभटों द्वारा धकेल दिया । उस समय तुम (संभूत) अत्यन्त क्रुद्ध हुए और अपनी तेजोलेश्या से भंयकर अग्निज्वाला के साथ धूआं निकालने लगे। सनत्कुमार चक्रवर्ती घबरा गया और वह अपनी राणियों के साथ अपराध की क्षमा याचना करने भाया और वह वार-बार तुम्हारे चरण से अपना मस्तक छुलाने लगा । सनत्कुमार चक्रवर्ती के सरपर वावना चंदण का तेल लगा हुआ था। उसके मस्तक का शीतल तैल तुम्हारे चरण पर गिरते हो तुम्हारा क्रोध शान्त होगया । चक्रवर्ती के दिव्य वैभव से तुम बहुत आकर्षित होगये और तुमने अपने तप का निदान किया। जिसके कारण तुम इस समय चक्रवर्ती बने हो। तुम अव भी राज्य भोगों का त्याग कर श्रमग वनो और जन्म-मरण से मुक्त होकर शाश्वत सुख प्राप्त करो । इस पर ब्रह्मदत्त ने चित्त मुनि से कहा-है मुने | आप मेरे अंतःपुर में रहें और राज्यसुख का अनुभव करें।