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आगम के अनमोल रत्न
उत्सव पूर्वक विनीता में प्रवेश किया । नगर की जनता ने एवं देवों ने राजा का दिग्विजय उत्सव किया। यह उत्सव बारह वर्ष तक चला। महाराज सगर को देवों ने चक्रवर्ती पद पर अधिष्ठित किया ।
महाराज सगर की चौंसठ हजार रानियाँ थीं। उनके साथ सुखभोग करते हुए चक्रवर्ती सगर को साठ हजार पुत्र हुए। उनमें जाहनुकुमार मुख्य था ।
एक दिन जानुकुमार आदि साठ हजार पुत्र पिता के पास आये और निवेदन करने लगे 'पूज्य पिताजी ! पूर्व दिशा के अलंकार सम मागधपतिदेव, दक्षिण दिशा के तिलक वरदामपति, पश्चिम दिशा के मुकुट प्रभासपति, पृथ्वी की दो भुजा सदृश गंगा सिन्धु देवो, भरत क्षेत्ररूपी कमल, कणिका, के समान वैताझ्यादिकुमार देव तमिसगुफा के अधिपति कृतमाल देव, भरत क्षेत्र की मर्यादा के स्तंभरूप हिमाचल देव, खण्डप्रपात गुफा के अधिष्ठायक नाट्यमाल देव एवं नैसर्प आदि नौ ऋद्धियों के अधिष्ठायक नौ हजार देवों पर आपका शासनाधिकार हो चुका है। आपने ऐसा कोई प्रदेश नहीं छोड़ा जिस पर विजय करना शेष हो। अतः पिताजी आपके द्वारा विजित समस्त प्रदेश की हम यात्रा करना चाहते हैं ।" महाराज सगर ने अपने पुत्रों को विजित प्रदेश में जाने की आज्ञा दे दी।
पिता की आज्ञा प्राप्तकर जानुकुमार आदि साठ हजार पुत्र देशाटन के लिये चल पड़े।
विविध देशों की यात्रा करते हुए सगरपुत्र अष्टापद पर्वत के पास पहुँचे । अष्टापद पर्वत के नयन-रम्य दृश्य को देखकर वे बड़े प्रभावित हुए। भगवान ऋषभदेव की इस निर्वाणभूमि अष्टापद पर्वत की रक्षा के लिये उन्होंने एक विशाल खाई बनाने का निश्चय किया । ।
__ अपने निश्चयानुसार दण्डरत्न की सहायता से सगरपुत्रों ने खाई खोदनी प्रारंभ करदी। खोदते-खोदते एक हजार योजन जमीन के अन्दर गहरी खाई खोद डाली । जमीन के भीतर नागकुमार देवों के भवन थे।