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वारह चक्रवर्ती
चौदह महास्वप्न देखे । स्वप्न देखकर वह जागृत हुई । उसने अपने पति से स्वप्न का फल पूछा। उत्तर में सुमित्रविजय ने कहा-प्रिये ! तुम चक्रवर्ती पुत्र को जन्म दोगी । गर्भ काल पूर्ण होने पर महारानी वैजयन्ती ने माघ शुक्ल अष्टमी के दिन एक पुत्र-रत्न को जन्म दिया। वालक का नाम 'सगरकुमार' रखा गया । सगरकुमार कलाचार्य के पास रहकर विद्याध्ययन करने लगा। वह अल्पकाल मे समस्त कलाओं में पारंगत हो गया । सगरकुमार ने शैशव से यौवन अवस्था में प्रवेश किया ।
भगवान अजितनाथ के राजा बनने के बाद उसे युवराज पद मिला । राजा अजितनाथ और युवराज सगर राज्य का उत्तम रीति से संचालन करने लगे।
भगवान अजितनाथ ने अपनी दीक्षा के समय युवराज सगर को समस्त राज्य का भार सौंप दिया । सगरकुमार न्याय नीति से समस्त राज्य का संचालन लगे।
एक समय सगर राजा की आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। सगर ने चक्ररत्न की उत्पत्ति के उपलक्ष में बड़ा उत्सव मनाया। सगर ने चक्ररत्न की सहायता से भरतक्षेत्र के छहों खण्ड पर विजय प्राप्त करने का निश्चय किया । तदनुसार उन्होंने विशाल चतुरंगिणी सेना को सजाया और चक्ररत्न के साथ विजय यात्रा पर चल पड़े। विनीता से वे मगध की ओर बढ़े । मगध पर विजय प्राप्त कर वरदाम प्रभास, गंगा, सिन्धु वैताढ्य इत्यादि देशों को जीतकर तमिस्रा गुफा के पास आये । वहाँ मेघमालीदेव की सहायता से तमिस्रा गुफा के मार्ग से होते हुए मूल हिमाद्रि खण्ड प्रपात आदि स्थानों पर विजय प्राप्त कर आरव, वर्चर आदि म्लेच्छ देशों को भी जीत लिया । इस प्रकार भारत के छहों खण्डों पर विजय प्राप्त कर सगर विनीता लौट आये। मार्ग में उन्होंने वैताट्य पर्वत के गगन वल्लभ नगर के विद्याधर राजा सुलोचन की पुत्री 'सुकोशा' के साथ विवाह किया । राजा ने