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बारह चक्रवर्ती
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होकर आते ही उनके पीछे उनका परिवार भी चल निकला । लगभग छह महीने तक पीछे पीछे फिरने के बाद परिवार के लोग हताश होकर लौट आये । सनत्कुमार मुनि वेले बेले का पारणा करने लगे। नीरस आहार के कारण तथा पूर्वजन्म के अशुभकर्मों के उदय से उनके शरीर में सोलह महारोग उत्पन्न हो गये । रोगों को अशुभ कर्म का उदय मानकर वे कभी औषधोपचार नहीं करते। इस प्रकार रोग परिषह को सहन करते हुए सातसौ वर्ण व्यतीत हो गए । तप के प्रभाव से सनत्कुमार मुनि को अनेक लब्धियाँ प्राप्त हो गई।
शक्रेन्द्र ने एक बार अपनी देवसभा में कहा, "सनत्कुमार मुनि उत्कृष्ट तपस्वी और सच्चे साधक हैं । उनके शरीर में असह्य रोग उत्पन्न हो गए हैं तो भी वे उनका प्रतिकार नहीं करते । यद्यपि उनके पास रोगोपशमनी अनेक लब्धियां हैं फिर भी वे उसका उपयोग नहीं करते। दो देव इस बात को परीक्षा करने के लिए वैद्य के रूप में सनत्कुमार मुनि के पास आए और रोग मिटाने के लिए औषधी लेने का आग्रह करने लगे 1 मुनि ने वैद्यों से कहा--
"वैद्यो ! क्या तुम जरा मरण जैसे रोगों के मिटाने में समर्थ हो ? मै भाव रोगों की चिकित्सा चाहता हूँ। द्रव्य रोगों को मिटाने की दवा तो मेरे पास भी है।" यह कह कर मुनि ने अपना थूक शरीर पर लगाया जिससे उनका शरीर निरोग हो गया। तेज और कान्ति से चमक उठा । यह देखकर दोनों देव मुनि को नमस्कार कर बोलेमहर्षि ! इन्द्र ने आपके तप वेज और वैराग्य की जैसी प्रशंसा की थी सचमुच आप वैसे ही हैं । आपका जीवन धन्य है। यह कह कर देव अपने स्थान चले गये।
__एक लाख वर्ष का संयम पालन करके मापने घनघाती कर्म का क्षय किया और वेवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर मोक्षगामी हुए। दूसरी मान्यतानुसार सनत्कुमार चक्रवर्ती सनत्कुमार नाम के तीसरे देवलोक में उत्पन्न हुए।