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आगम के अनमोल रत्न
एक बार इन्द्र ने अपनी सौधर्म सभा में सनत्कुमार चक्रवर्ती के रूप की प्रशंसा करते हुए कहा-देवो ! जैसा रूप चक्रवर्ती सनत्कुमार का है वैसा किसी मनुष्य का या देव का भी नहीं है !"
इन्द्र की यह बात विजय और वैजयन्त नामके दो देवों को अच्छी नहीं लगी। उन्होंने सोचा, पृथ्वी पर उतरकर हमें इन्द्र की इस बात की परीक्षा करनी चाहिये । ये दोनों देव सनत्कुमार का रूप देखने के लिये पृथ्वी पर उतर आये और वृद्ध ब्राह्मण के रूप में वे सनत्कुमार चक्रवर्ती के पास आये । उस समय सनत्कुमार चक्रवर्ती स्नान घर में जा रहे थे। उन्हें देखकर ब्राह्मणों ने उनके रूप की बहुत प्रशंसा की । अपने रूप की प्रशंसा सुनकर सनत्कुमार को बड़ा अभिमान हुआ। उन्होंने ब्राह्मणों से कहा, "तुम लोग अभी मेरे रूप को क्या देख रहे हो ? जब मै स्नानादि कर वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर राजसभा में सिंहासन पर वैहूँ तव तुम मेरे रूप को देखना । स्नानादि से निवृत्त होकर जव सनत्कुमार सिंहासन पर जाकर बैठे तब उन ब्राह्मणों को राजसभा में उपस्थित किया गया । ब्राह्मणों ने कहा"राजन् ! तुम्हारा रूप पहले जैसा नहीं रहा ।" राजा ने कहा"यह कैसे ?" ब्राह्मणों ने कहा-"आप अपने मुह को देखे । उसके अन्दर क्या हो रहा है ? " राजा ने पीकदानी में थूक कर देखा तो उसमें असंख्य कीड़े बिलविलाहट कर रहे थे और उसमें महान दुर्गन्ध आ रही थी। चक्रवर्ती का रूप सम्बन्धी अभिमान चूर हो गया । उन्हें शरीर की मशुचि का भान हो गया । वे विचारने लगे"शरीर रोग का घर है। इसमें अनेक घृणित वस्तुएँ भरी हुई हैं। जिस प्रकार दीमक कीड़ा काष्ठ को भीतर ही भीतर खाकर खोखला बना देता है, उसी प्रकार शरीर में से उत्पन्न रोग सुन्दर शरीर को विद्रूप बना देते हैं । " इस प्रकार अशुचि भावना भाते हुए सनत्कुमार चक्रवर्ती विरक्त हो गये और अपने पुत्र को राज्यभार सौंप कर विनयधर भाचार्य के पास दीक्षित हो गये । सनत्कुमार के दीक्षित