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वारह चक्रवर्ती
२९७ भगवान का उपदेश सुनकर उन्हें वैराग्य उत्पन्न होगया । राजपाट छोड़कर भगवान के पास उन ९८ भाइयों ने दीक्षा ग्रहण कर ली। अन्त में केवलज्ञान-केवलदर्शन प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त किया। वाहुवली
भरत को सूचना वाहुबली के पास भी पहुँची । वाहुबली बड़े शक्तिशाली और वीर राजा थे। उन्हें भरत के आधीन रहना पसन्द नहीं था। वे दूत द्वारा संदेश पाकर बड़े ऋद्ध हुए और दृत को अपमानित कर कहा-"पूज्य पिताजी ने जिसप्रकार भरत को अयोध्या का राज्य दिया है, उसी प्रकार मुझे तक्षशिला का राज्य दिया है। जो राज्य मुझे पिताजी से प्राप्त हुआ है उसे छीनने का अधिकार भरत को नहीं है। जाओ, तुम अपने स्वामी भरत से कहदो कि वाहुबली भरत के शासन में रहने के लिये तैयार नहीं है।"
दूत की बात सुनकर भरत ने विशाल सेना के साथ वाहुवली पर चढ़ाई कर दी। वाहुबली ने भी अपनी सेना के साथ आकर सामना किया । एक दूसरे के रक्त की प्यासी बनकर दोनों सेनाएँ मैदान में आकर ढट गई। एक दूसरे पर आक्रमण करने के लिये सेनाएं आज्ञा की प्रतीक्षा करने लगी। ___सौधर्मेन्द्र ने जब दोनों महावलियों को युद्ध के मैदान में युद्ध के लिये तैयार देखा तो उनके पास आकर यह कहा "आप दोनों निगी स्वार्थ के लिये सेना का संहार क्यों करने जा रहे हैं ! अगर आप को लड़ना ही है तो दोनों आपस में लड़कर हार-जीत का फैसला कर लें । व्यर्थ का मानव-संहार करने से क्या फायदा।" दोनों भाइयों को इन्द्र की वात पसन्द आगई। दोनों के बीच दृष्टि-युद्ध, वाग्युद्ध और मुष्टि-युद्ध होना निश्चित हुआ । पहले के चार युद्धो में वाहुबली की जीत हुई, फिर मुष्टि-युद्ध की बारी आई । वाहुवली को भुजाओं में बहुत बल था । उसे अपनी विजय में विश्वास था । उसने भरत के मुष्टि-प्रहार को सह लिया । इसके बाद स्वयं प्रहार करने के लिये