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आगम के अनमोल रत्न
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युद्ध करना चाहिये । इस सम्बन्ध में हमें अपने पिता भगवान ऋष. भदेव की सम्मति लेकर ही कार्य करना चाहिये। उनसे पूछे बिना हमें किसी प्रकार का कदम न उठाना चाहिये । इस प्रकार विचार कर वे सभी जहाँ भगवान ऋषभदेव विरजमान थे, वहाँ आये और भगवान को वन्दन कर उन्होंने उपरोक्त सारी हकीकत प्रभु से निवेदन की। भगवान ने शान्तिपूर्वक अपने पुत्रों की बातें सुनकर कहा__ "हे आर्यो ! तुम इस बाहरी राज्य लक्ष्मी के लिये इतने चिन्तित क्यों हो रहे हो ? यदि कदाचित् तुम भरत से अपने राज्य की रक्षा करने में समर्थ भी हो जाओगे तब भी अन्त में भागे या पीछे इस राज्यलक्ष्मी को तुम्हें छोड़ना ही पड़ेगा । तुम धर्म की शरण ग्रहण करो जिससे तुम्हें ऐसी मोक्ष रूप राज्यलक्ष्मी प्राप्त होगी जिसे कोई नहीं छीन सकता । वह नित्य, स्थायी और भविनाशी है । भगवान ने आगे कहासंवुज्झह किं न बुज्झह ? संबोही खलु पेच्च दुल्लहा । णो हूवणमंति राइणो, णो सुलभ पुणरावि जीवियं ।। डहरा वुड्डा य पासह गम्भत्था वि चयंति माणवा ॥
सेणे जह वट्टयं हरे, एवं आउखयम्मि तुट्टई ॥ __ हे भव्यो ! तुम बोध प्राप्त करो। तुम क्यों नहीं बोध प्राप्त करते। जो रात्रि (समय) व्यतीत होगई है वह फिर लौटकर नहीं आती और संयम जीवन फिर सुलभ नहीं है।
हे भव्यो ! तुम विचार करो ! बालक वृद्ध और गर्भस्थ मनुष्य भी अपने जीवन को छोड़ देते हैं। जैसे बाज पक्षी तीतर पर किसी भी समय झपटकर उसके प्राण हरण कर लेता है इसी प्रकार मृत्यु भी किसी समय अचानक -प्राणियों के प्राणहरण कर लेती है।
मनुष्य जन्म, आर्य देश, उत्तम कुल, पांचों इन्द्रियों की परिपूर्णता आदि बातों का बार बार मिलना बड़ा दुर्लभ है अतएव तुम सब समय रहते शीघ्र ही बोधि प्राप्त करने का प्रयत्न करो। ।