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वारह चक्रवर्ती
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देश पर चढ़ आया है, आप लोग इसे शीघ्र ही भगा दें। नागकुमारों ने उत्तर दिया-यह भरत नामक चक्रवर्ती है जो किसी भी देव दानव, किन्नर, किंपुरुष, महोरग या गन्धर्व से नहीं जीता जा सकता और न किसी शस्त्र, अग्नि, मंत्र आदि से ही इनकी कोई हानि की जा सकती है। फिर भी तुम लोगों के हितार्थ वहाँ पहुँच कर हम कुछ उपद्रव करेंगे । इतना कहकर नागकुमार विजयस्कंधावार निवेश में आकर मूसलाधार वर्षा करने लगे । लेकिन भरत ने वर्षा की कोई परवाह नहीं की और अपने चर्मरत्न पर सवार हो छत्ररत्न से वर्षा को रोक मणिरत्न के प्रकाश में सात रात्रियाँ व्यतीत कर दी ।
देवों को जब इस उपद्रव का पता लगा तो वे मेघमुख नागकुमारों के पास आये और उनको डाँटडपट कर कहने लगे-क्या तुम नहीं जानते हो कि भरत राजा अजेय है फिर भी तुम लोग वर्षा द्वारा उपद्रव कर रहे हो ! यह सुनकर नागकुमार भयभीत हो गये और उन्होंने किरातों के पास पहुँचकर उन्हें सब हाल सुनाया । उसके बाद किरात लोग भाई वस्त्र धारण कर श्रेष्ठ रत्नों को ग्रहण कर भरत की शरण में पहुँचे और अपराधों की क्षमा मांगने लगे। रत्नों को ग्रहण कर भरत ने किरातों को अभयदान पूर्वक सुख से रहने की अनुमति प्रदान की। तत्पश्चात् भरत क्षुद्रहिमवंत पर्वत के पास पहुंचे। क्षुद्र हिमवंत गिरि कुमार की अष्टम भक्त से आराधना की और उसे सिद्ध किया । फिर ऋषभकूट पर्वत पर पहुँच वहाँ काकणि-रत्न से पर्वत की भित्ति पर अपना नाम अंकित किया । उसके बाद दिग्विजय करते हुए भरत महाराज ने वैताठ्य पर्वत की विद्याधर श्रेणियों पर आक्रमण कर दिया । उस समय कच्छ और महाकच्छ के पुत्र नमि और विनमि वहाँ के राजा थे। उनके साथ वारह वर्ष तक युद्ध चला। अन्त में नमि विनमि हारकर भरत महाराज के शरण में आये। विनमि ने अपनी दौहती सुभद्रा का विवाह महाराज भरत के साथ