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आगम के अनमोल रत्न
मलेच्छ जाति और दक्षिण-पश्चिम से लेकर सिन्धु, सागर तक के प्रदेशों के तथा सर्वप्रवर कच्छदेश को जीत लिया । सुषेण के विजयी होने पर अनेक जनपद और नगर आदि के स्वामी सेनापति की सेवा में अनेक आभरण, भूषण, रत्न, वस्त्र तथा अन्य बहुमूल्य भेंट लेकर उपस्थित हुए । उसके बाद सुषेण सेनापति ने तिमिस्रगुहा के दक्षिण द्वार के कपाटों का उद्घाटन किया ।
इसके बाद भरत चक्रवर्ती अपने मणि रत्न को लिये तिमिस्रगुहा के दक्षिण द्वार के पास गये और भित्ति के ऊपर काकणिरत्न से उसने ४९ मण्डल बनाये। . उत्तरार्द्ध भरत में अपात नाम के किरात रहते थे। वे अनेक भवन, शयन, यान, वाहन तथा दास, दासी, गो, महिष, आदि से सम्पन्न थे । एक बार अपने देश में अकाल-गर्जन, असमय में विद्यत् की चमक और वृक्षों का फलना फूलना तथा आकाश में देवताओं के नृत्य देखकर वे बड़े चिन्तित हुए उन्होंने सोचा कि शीघ्र ही कोई आपत्ति भाने वाली है। इतने में तिमिस्र गुहा के उत्तर द्वार से बाहर निकलकर भरत राजा अपनी सेनासहित वहाँ आ पहुँचे । दोनों सेनाओं में युद्ध हुआ और किरातों ने भरत की सेना को मार भगाया । अपनी सेना की पराजय देखकर सुषेण सेनापति अश्वरत्न पर आरूढ़ हो भौर असिरत्न को हाथ में ले किरातों की ओर बढ़ा और उसने शत्रुसेना को युद्ध में हरा दिया। पराजित किरात सिन्धु नदी के किनारे बालुका के संस्तारक पर ऊर्ध्व मुख करके वस्त्र रहित हो लेट गये और अष्टम भक्त से अपने कुल देवता मेघमुख नामक नागकुमारों की आराधना करने लगे । इससे नागकुमारों के आसन कम्पायमान हुए और वे शीघ्र ही किरातों के पास भाकर उपस्थित हुए। अपने कुलदेवताओं को देखकर किरातों ने उन्हें प्रणाम किया और जयविजय से बधाई दी। उन्होंने कुल देवताओं से निवेदन किया-हे देवानुप्रियो ! यह कौन दुष्ट हमारे