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आगम के अनमोल रत्न
प्रवेश कर सुगन्धित जल से स्नान किया और वस्त्राभूषणों से अलंकृत हो वे बाहर निकले । फिर अनेक गणनायक, दण्डनायक, दूत, सन्धिपाल आदि से वेष्टित हो बाजे गाजे के साथ आयुधशाला की ओर चले । उनके पीछे-पीछे देश विदेश की अनेक दासियाँ चन्दन, कलश शृङ्गार, दर्पण, वातकरक (जलशून्य घड़े), रत्न करण्डक, वस्त्र, आभरण सिंहासन, छत्र, चमर, ताड़ के पंखे, धूपदान आदि लेकर चल रही थीं । आयुधशाला में पहुँच कर भरत ने चकरत्न को प्रणाम किया । रुएँदार पीछी से उसे झाड़ा पोंछा, जलधारा से स्नान कराया, चन्दन का अनुलेप किया फिर गन्ध-माल्य आदि से उसकी अर्चना की । उसके बाद चक्ररत्न के सामने चावलों के द्वारा आठ मंगल बनाये, पुष्पों की वर्षा की और धूप जलाई । फिर चक्ररत्न को प्रणाम कर भरत आयुधशाला के बाहर आये । उन्होंने अठारह श्रेणी प्रश्रेणीकुंभार, पट्टइल्ल (पटेल),सुवर्णकार सूपकार (रसोइया), गांधर्व काश्यप(नाई), मालाकार (माली), कच्छकर (काछी), तंबोली, चमार, यंत्र पोलक (कोल्हू आदि चलाने वाला), गछिअ (गांछी), छिपाय, (छौंपी) कंसकार (कसेरा), सीवग (सीनेवाला), गुआर (ग्वाला), भिल्ल एवं धीवर, इन को बुलाकर नगरी में आठ दिन के उत्सव की घोषणा की और सब जगह कहलादिया कि इन दिनों में व्यापारियों आदि से किसी प्रकार का शुल्क नहीं लिया जायगा, राजपुरुष किसी के घर में जबरदस्ती प्रवेश नहीं कर सकेगे । किसी को अनुचित दण्ड नहीं दिया जाएगा ।
उत्सव समाप्त होने के बाद चक्ररत्न ने विनीता से गंगा के दक्षिण तट पर पूर्व दिशा में स्थित मागध तीर्थ की ओर प्रयाण किया । यह देखकर भरत राजा चतुरंगिणी सेना से सज्जित हो, हस्तिरत्न पर सवार होकर गंगा के दक्षिण तट के प्रदेशों को जीतते हुये चक्ररत्न के पीछे-पीछे चलकर मागध तीर्थ में आये और यहाँ अपना पड़ाव डाल दिया। हस्तिरत्न से उतरकर भरत ने पोषधशाला में प्रवेश किया भौर वहाँ दर्भ के संथारे पर बैठ कर अष्टम भक्त (तेला) के साथ