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वारह चक्रवर्ती
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मागध तीर्थकुमार नामक देव को आराधना की फिर भरत ने बाहर की उपस्थान शाला में आकर कौटुम्बिक पुरुष को अश्वरत्न तैयार करने की आज्ञा दी।
चारघण्टे वाले अश्वरथ पर सवार होकर अपने दल-बल सहित भरत राजा ने चक्ररत्न का अनुगमन करते हुए लवणसमुद्र में प्रवेश किया। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मगध तीर्थाधिपति देव के भवन में एक बाण मारा जिससे देव अपने सिंहासन से खलवला कर उठा । वाण पर लिखे हुए भरत चक्रवर्ती के नाम को पढ़कर देव को पता चला कि भारतवर्ष में भरत नामक चक्रवर्ती का जन्म हुआ है। उसने तुरत ही भरत के पास पहुंच कर उसे बधाई दी और निवेदन किया-देवानुप्रिय का मै भाज्ञाकारी सेवक हूँ। मेरे योग्य सेवा का आदेश दें। उसके बाद देव का आदर-सत्कार स्वीकार करके भरत चक्रवर्ती ने अपने रथ को भारतवर्ष की ओर लौटा दिया और विजयस्कन्धावार निवेश में पहुँच कर मगध तीर्थाधिपति देव के सन्मान में आठ दिन के उत्सव की घोषणा की । उत्सव समाप्त होने पर चक्ररत्न ने वरदाम तीर्थ की ओर प्रस्थान किया ।
वरदाम तीर्थ में भरत चक्रवर्ती ने तेला करके-वरदाम तीथे कुमार देव की और प्रभास तीर्थ में प्रभास कुमार देव की सिद्धि प्राप्त की । इसी प्रकार सिन्धुदेवी, वैवाय गिरिकुमार और कृतमाल देव को सिद्ध किया ।
उसके बाद भरत राजा ने अपने सुषेण नामक सेनापति को सिन्धु नदी के पश्चिम में स्थित निष्कुट प्रदेश को जीतने के लिये भेजा । सुषेण महापराक्रमी और अनेक म्लेच्छ भाषाओं का पण्डित था । वह अपने हाथी पर बैठकर सिन्धु नदी के किनारे पहुँचा और वहाँ से चमड़े की नाव द्वारा नदी में प्रवेशकर उसने सिंहल, बर्वर, अगलोक चिलाय लोक, यवन द्वीप, आरवक, रोमक, अलसंड, तथा पिरखुर, वालमुख और जोनक (पवन) नामक म्लेच्छों तथा उत्तर वैताढ्य, में रहने वाली